Sunday, July 31, 2016

DEVI PATAN TEMPLE - देवीपाटन मंदिर

देवीपाटन मंदिर - हिन्दुत्व की सतत् जलती मशाल

उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले में स्थित देवीपाटन मंदिर राज्य ही नहीं, पूरे भारत में हिन्दुत्व की सतत जलती मशाल का एक अनोखा उदाहरण है।




पौराणिक मान्यता के अनुसार देवीपाटन मंदिर ही वह स्थल है, जहां देवी सती का वाम स्कंध वस्त्र सहित गिरा था और यही वह स्थान है, जहां सीता जी धरती माता के साथ पाताल में समा गई थीं। इसीलिए इसका नाम पातलेश्वरी पड़ा था, जिसे बाद में पाटेश्वरी नाम से जाना जाने लगा। यह मंदिर सिरिया नदी के किनारे अवस्थित है। मंदिर देशभर में फैले 51 शक्तिपीठों में से एक है। पुराणों के अनुसार महादेवी सती के पिता दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया था, लेकिन सती के पति भगवान शंकर को आमंत्रित नहीं किया। इससे नाराज सती अपने मायके में धू-धूकर जल रही यज्ञशाला में कूद पड़ीं और अपने प्राण त्याग दिये। यह समाचार जब भगवान शंकर को मिला तो उन्होंने दक्ष प्रजापति के घर पहुंचकर वहां यज्ञ को विध्वंस कर दिया और सती के शव को लेकर आकाश में तांडव नृत्य करने लगे। सभी देवी-देवता यह देखकर घबरा गये और उन्हें लगा कि अब प्रलय हो जायेगी। सभी ने भगवान विष्णु से इस विनाश से बचाने की गुहार लगायी। तब भगवान विष्णु ने लोक कल्याणार्थ अपने सुदर्शन चक्र से सती के अंगों को काट डाला। महादेवी सती के कटे अंग भारत के जिन-जिन स्थानों पर गिरे, उन्हें सिद्ध शक्तिपीठ माना गया। इस तरह 51 शक्तिपीठ हैं। लेकिन उपवस्त्रों, उपांगों और आभूषणों के गिरने के स्थानों को मिलाकर ऐसे स्थानों की संख्या 108 है। इस स्थान की पुष्टि पुराणों में उल्लिखित इस श्लोक से भी होती है-

पटेन सहित स्कन्ध पपात्र यत्र भूतले, तत्र पाटेश्वरी देवी इति ख्याता महीतले।

लोकश्रुति के अनुसार त्रेतायुग में भगवान श्रीराम अपनी अर्धांगिनी देवी सीता को राक्षस रावण के संहार के बाद जब अयोध्या लाये तो उन्हें पुन: अग्नि परीक्षा देनी पड़ी। हालांकि लंका में ही उन्होंने अग्नि में प्रवेश कर परीक्षा दे दी थी। सीता को काफी दु:ख हुआ। जिस धरती माता की गोद से उनका प्रादुर्भाव हुआ था उसी मां को उन्होंने पुकारा तो जमीन फट गयी और एक सिंहासन पर बैठकर पाताल लोक से ऊपर आयीं। अपनी धरती मां के साथ सीता जी भी पाताल लोक चली गयीं। इसलिए इस स्थान का नाम पातलेश्वरी देवी पड़ा, जो कालांतर में पाटेश्वरी देवी नाम से विख्यात हुआ। आज भी मंदिर में पाताल तक सुरंग बताई जाती है, जो चांदी के चबूतरे के रूप में दृष्टिगत है। प्रसाद पहले इसी चबूतरे पर चढ़ाया जाता था लेकिन सुरक्षा की दृष्टि से अब प्रसाद बाहर चढ़ाया जाता है। चबूतरे के पास एक भव्य दुर्गा प्रतिमा स्थापित है।

देवीपाटन मंदिर भारत-नेपाल के बीच मित्रता को न केवल सतत अक्षुण्ण बनाये हुए है, वरन उसे प्रगाढ़ बनाये रखने में महती भूमिका निभाता है। नेपाल के दांग-चोघड़ा मठ में स्थापित पीर रत्ननाथ को सिद्धि भी देवीपाटन में मिली थी। भगवान शिव के अवतार के रूप में अवतरित गुरु गोरक्षनाथ के शिष्य रत्ननाथ के दो मठ थे। रत्ननाथ की तपस्या से खुश होकर मां साक्षात् प्रकट हुर्इं और वर मांगने के लिए कहा तो पीर रत्ननाथ ने उनसे यही वर मांगा कि उनकी पूजा इस मठ में भी हो। मां दुर्गा ने उनको ऐसा ही आशीर्वाद दिया। देवीपाटन मंदिर में नेपाल से पीर रत्ननाथ की शोभायात्रा प्रत्येक वासंती नवरात्र की पंचमी को यहां पहुंचती है और पांच दिन तक वहां से आये पुजारियों द्वारा मंदिर में पूजा के साथ-साथ रत्ननाथ की भी पूजा की जाती है। इस दौरान मंदिर में लगे घंटे आदि नहीं बजाये जाते हैं। रत्ननाथ की पूजा में शामिल होने के लिए भारत और नेपाल के हजारों श्रद्धालु भी इस अवसर पर मौजूद रहते हैं।

यह स्थल कई महापुरुषों की कर्मस्थली का साक्षी भी है। मंदिर के इतिहास के अनुसार भगवान परशुराम ने यहीं तपस्या की थी। द्वापर युग में सूर्यपुत्र कर्ण ने भी यहीं भगवान परशुराम से दिव्यास्त्रों की दीक्षा ली थी। कहते हैं कर्ण मंदिर के उत्तर स्थित सूर्यकुड में प्रतिदिन स्नान कर उसी जल से देवी की आराधना करते थे। वही परंपरा आज भी चली आ रही है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार राजा कर्ण ने कराया था। औरंगजेब ने अपने सिपहसालार मीर समर को इसे नष्ट और भ्रष्ट करने का जिम्मा सौंपा था, जो सफल नहीं हो सका और देवी प्रकोप का शिकार हो गया। उसकी समाधि मंदिर के पूरब में आज भी अवस्थित है।

साभार : शशि सिंह, पाञ्चजन्य

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