Sunday, July 31, 2016

MANIMAHESH YATRA - मणि महेश यात्रा

वृहत संहिता में तीर्थ का बड़े ही सुंदर शब्‍दों में वर्णन किया गया है। इसके अनुसार, ईश्‍वर वहीं क्रीड़ा करते हैं जहां झीलों की गोद में कमल खिलते हों और सूर्य की किरणें उसके पत्‍तों के बीच से झांकती हो, जहां हंस कमल के फूलों के बीच क्रीड़ा करते हों...जहां प्राकृ‍तिक सौंदर्य की अद्भुत छटा बिखरी पड़ी हो।' हिमालय पर्वत का दृश्‍य इससे भिन्‍न नहीं है। इसलिए इस पर्वत को ईश्‍वर का निवास स्‍थान भी कहा गया है। भगवदगीता में भगवान श्री कृष्‍ण ने कहा है, 'पर्वतों में मैं हिमालय हूं।' यही वजह है कि हिंदू धर्म में हिमालय पर्वत को विशेष स्‍थान प्राप्‍त है। हिंदुओं के पवीत्रतम नदी गंगा का उद्भव भी इसी हिमालय पर्वत से होता है।

मणिमहेश यात्रा


जुलाई-अगस्‍त के दौरान पवित्र मणिमहेश झील हजारों तीर्थयात्रियों से भर जाता है। यहीं पर सात दिनों तक चलने वाले मेला का आयोजन भी किया जाता है। यह मेला जन्‍माष्‍टमी के दिन समाप्‍त होता है। जिस तिथि को यह उत्‍सव समाप्‍त होता है उसी दिन भरमौर के प्रधान पूजारी मणिमहेश डल के लिए यात्रा प्रारंभ करते हैं। यात्रा के दौरान कैलाश चोटि (18,556) झील के निर्मल जल से सराबोर हो जाता है। कैलाश चोटि के ठीक नीचे से मणीमहेश गंगा का उदभव होता है। इस नदी का कुछ अंश झील से होकर एक बहुत ही खूबसूरत झरने के रूप में बाहर निकलती है। पवित्र झील की परिक्रमा (तीन बार) करने से पहले झील में स्‍नान करके संगमरमर से निर्मित भगवान शिव की चौमुख वाले मूर्ति की पूजा अर्चना की जाती है। कैलाश पर्वत की चोटि पर चट्टान के आकार में बने शिवलिंग का इस यात्रा में पूजा की जाती है। अगर मौसम उपयुक्‍त रहता है तो तीर्थयात्री भगवान शिव के इस मूर्ति का दर्शन लाभ लेते हैं।

हमारे जाट देवता संदीप जी मणिमहेश झील के किनारे - साभार चित्र जाट देवता के ब्लॉग से 

स्‍थानीय लोगों के अनुसार कैलाश उनकी अनेक आपदाओं से रक्षा करता है, यही वजह है कि स्‍थानीय लोगों में महान कैलाश के लिए काफी श्रद्धा और विश्‍वास है। यात्रा शुरू होने से पहले गद्दी वाले अपने भेड़ों के साथ पहाड़ों पर चढ़ते हैं और रास्‍ते से अवरोधकों को यात्रियों के लिए हटाते हैं। ताकि यात्रा सुगम और कम कष्‍टप्रद हो। कैलाश चोटि के नीचे एक बहुत बड़ा हिमाच्‍छादित मैदान है जिसको भगवान शिव के क्रीड़ास्‍थल 'शिव का चौगान' के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि यहीं पर भगवान शिव और देवी पार्वती क्रीड़ा करते हैं। वहीं झील के कुछ पहले जल का दो स्रोत है। इसको शिव क्रोत्रि और गौरि कुंड के नाम से जाना जाता है।
चौरसिया मंदिर, भरमौर



साभार : BHARMOUR.IN 

चौरसिया मंदिर का नाम इसके परिसर में स्थित 84 छोटे-छोटे मंदिरों के आधार पर रखा गया है। यह मंदिर भरमौर या ब्रह्मपुरा नामक स्‍थान में स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार 84 योगियों ने ब्रह्मपुरा के राजा साहिल बर्मन के समय में इस जगह भ्रमण करते‍ हुए आए थे। राजा बर्मन के आवभगत से अभिभूत होकर योगियों ने उनको 10 पुत्र रत्‍न प्राप्ति का आशीर्वाद दिया। फलत: राजा बर्मन ने इन 84 योगियों की याद में 84 मंदिरों का निर्माण करा दिया। तभी से इसको चौरसिया मंदिर के नाम से जानते हैं। एक दूसरी धारणा के अनुसार एक बार भगवान शिव 84 योगियों के साथ जब मणिमहेश की यात्रा पर जा रहे थे तो कुछ देर के लिए ब्राह्मणी देवी की वाटिका में रुके। इससे देवी नाराज हो‍ गईं लेकिन भगवान शिव के अनुरोध पर उन्‍होंने योगियों के लिंग रूप में ठहरने की बात मान ली। कहा जाता है इसके बाद यहां पर इन योगियों की याद में चौरसिया मंदिर का निर्माण कराया गया। जबकि एक और मान्‍यता के अनुसार जब 84 योगियों ने देवी के प्रति सम्‍मान प्रकट नहीं किया तो उनको पत्‍थर में तब्‍दील कर दिया गया।

मणिमहेश्‍वर यात्रा मार्ग


मणिमहेश्‍वर 3950 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इसकी चढ़ाई ज्‍यादा कठिन नहीं तो आसान भी नहीं है। इस मंदिर के दर्शन हेतु मई से अक्‍टूबर का महीना सबसे ज्‍यादा उपयुक्‍त है। लेकिन पहाड़ी चढ़ाई होने के कारण एक दिन में 4 से 5 घंटे तक की चढ़ाई ही संभव हो पाती है। मणिमहेश की यात्रा कम से कम सात दिनों की है। मोटे तौर पर मणिमहेश के लिए मार्ग है


- नई दिल्‍ली - धर्मशाला - हर्दसार - दांचो - मणिमहेश झील - दंचो - धर्मशाला - नई दिल्‍ली.

पहला दिन

नई दिल्‍ली पहुंचकर धर्मशाला के लिए प्रस्‍थान।

दूसरा दिन

(धर्मशाला-हर्दसार-दांचो, 2280 मीटर की ऊंचाई पर स्थित) हर्दसार से दांचो जिसकी दूरी 7 कि॰मी॰ है, लेकिन जाने में 3 घंटे लग जाते हैं। रात भर कैंप में गुजारनी होती है।तीसरा दिन

(दांचो - मणीमहेश झील, 3950 मी. की ऊंचाई पर स्थित) दांचो से मणीमहेश तक की चढ़ाई न केवल लंबी है वरन इस यात्रा का सबसे कठिनतम चरण भी है। इस मार्ग पर लगातार चढ़ाई करनी होती है। रात कैंप में बिताना होता है।चौथा दिन

(मणिमहेश झील-दांचो) वापस आने की प्रक्रिया की शुरूआत। इसके तहत पहला दिन दांचो में गुजारना होता है।पांचवां दिन

(दांचो-धर्मशाला)छठा दिन

(धर्मशाला) यहां पहुंचने के उपरांत तीर्थयात्री अगर चाहें तो विभिन्‍न बौद्धमठों को देखने का लुत्‍फ उठा सकते हैं। इसके बाद शाम में पठानकोट पहुंचा जा सकता है। यहां से ट्रेन या सड़क मार्ग से दिल्‍ली के लिए प्रस्‍थान किया जा सकता है।सातवां दिन

(आरक्षित दिन)

चांबा बेस से जाने पर चढ़ाई कुछ आसान हो जाती है। तीर्थयात्री चाहें तो इस मार्ग का भी इस्‍तेमाल कर सकते हैं।

MAA BAGLAMUKHI - माँ बगलामुखी का प्राचीन मंदिर

''ह्मीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलम बुद्धिं विनाशय ह्मीं ॐ स्वाहा।''



प्राचीन तंत्र ग्रंथों में दस महाविद्याओं का उल्लेख मिलता है। उनमें से एक है बगलामुखी। माँ भगवती बगलामुखी का महत्व समस्त देवियों में सबसे विशिष्ट है। विश्व में इनके सिर्फ तीन ही महत्वपूर्ण प्राचीन मंदिर हैं, जिन्हें सिद्धपीठ कहा जाता है। उनमें से एक है नलखेड़ा में। तो आइए धर्मयात्रा में इस बार हम अपको ले चलते हैं माँ बगलामुखी के मंदिर।

भारत में माँ बगलामुखी के तीन ही प्रमुख ऐतिहासिक मंदिर माने गए हैं जो क्रमश: दतिया (मध्यप्रदेश), कांगड़ा (हिमाचल) तथा नलखेड़ा जिला शाजापुर (मध्यप्रदेश) में हैं। तीनों का अपना अलग-अलग महत्व है।

मध्यप्रदेश में तीन मुखों वाली त्रिशक्ति माता बगलामुखी का यह मंदिर शाजापुर तहसील नलखेड़ा में लखुंदर नदी के किनारे स्थित है। द्वापर युगीन यह मंदिर अत्यंत चमत्कारिक है। यहाँ देशभर से शैव और शाक्त मार्गी साधु-संत तांत्रिक अनुष्ठान के लिए आते रहते हैं।

इस मंदिर में माता बगलामुखी के अतिरिक्त माता लक्ष्मी, कृष्ण, हनुमान, भैरव तथा सरस्वती भी विराजमान हैं। इस मंदिर की स्थापना महाभारत में विजय पाने के लिए भगवान कृष्ण के निर्देश पर महाराजा युधि‍ष्ठिर ने की थी। मान्यता यह भी है कि यहाँ की बगलामुखी प्रतिमा स्वयंभू है।

यहाँ के पंडितजी कैलाश नारायण शर्मा ने बताया कि यह बहुत ही प्राचीन मंदिर है। यहाँ के पुजारी अपनी दसवीं पीढ़ी से पूजा-पाठ करते आए हैं। 1815 में इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया था। इस मंदिर में लोग अपनी मनोकामना पूरी करने या किसी भी क्षेत्र में विजय प्राप्त करने के लिए यज्ञ, हवन या पूजन-पाठ कराते हैं।

यहाँ के अन्य पंडित गोपालजी पंडा, मनोहरलाल पंडा आदि ने बताया कि यह मंदिर श्मशान क्षेत्र में स्थित है। बगलामुखी माता मूलत: तंत्र की देवी हैं, इसलिए यहाँ पर तांत्रिक अनुष्ठानों का महत्व अधिक है। यह मंदिर इसलिए महत्व रखता है, क्योंकि यहाँ की मूर्ति स्वयंभू और जाग्रत है तथा इस मंदिर की स्थापना स्वयं महाराज युधिष्ठिर ने की थी।

इस मंदिर में बिल्वपत्र, चंपा, सफेद आँकड़ा, आँवला, नीम एवं पीपल के वृक्ष एक साथ स्थित हैं। इसके आसपास सुंदर और हरा-भरा बगीचा देखते ही बनता है। नवरात्रि में यहाँ पर भक्तों का हुजूम लगा रहता है। मंदिर श्मशान क्षेत्र में होने के कारण वर्षभर यहाँ पर कम ही लोग आते हैं।

कैसे पहुँचें:-

वायु मार्ग: नलखेड़ा के बगलामुखी मंदिर स्थल के सबसे निकटतम इंदौर का एयरपोर्ट है।

रेल मार्ग: ट्रेन द्वारा इंदौर से 30 किमी पर स्थित देवास या लगभग 60 किमी मक्सी पहुँचकर भी शाजापुर जिले के गाँव नलखेड़ा पहुँच सकते हैं।

सड़क मार्ग: इंदौर से लगभग 165 किमी की दूरी पर स्थित नलखेड़ा पहुँचने के लिए देवास या उज्जैन के रास्ते से जाने के लिए बस और टैक्सी उपलब्ध हैं।

- अनिरुद्ध जोशी 'शतायु' , वेब दुनिया

KHAJJIAR - भारत का मिनी स्विट्रजरलैंड खजियार



हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले में स्थित खजियार को भारत का मिनी स्विट्जरलैंड कहा जाता है। खजियार के अलावा, यहां के आस-पास का प्राकृतिक सौंदर्य पर्यटकों को खूब आकर्षित करता है...हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले में बेहद खूबसूरत स्थल है खजियार। समुद्र तल से करीब २००० मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह स्थल पश्चिम हिमाचल की धौलाधार पर्वत शृंखला के बीच में बसा है। खजियार का नाम यहां स्थित च्खजी नागज् के मंदिर के कारण पड़ा माना जाता है।


इस स्थल की भौगोलिक संरचना के कारण इसे भारत का मिनी स्विट्जरलैंडज् भी कहा जाता है। यहां एक ही स्थान पर झील, चरागाह और वन इन तीनों पारिस्थितिक तंत्र का होना एक दुर्लभ संयोग की तरह है, जो इसकी सुंदरता में और भी निखार लाता है। खजियार और इसके आस-पास अन्य कई सुंदर जगहें भी हैं, जिन्हें घूमे बगैर आपकी यात्रा अधूरी-सी मानी जाएगी। ...तो आइए चलते हैं इन सभी को बारी-बारी से निहारने।

खजियार झील


यह खजियार का मुख्य आकर्षण है। चारों ओर से घने देवदार के जंगल और हरे मैदान के बीचों-बीच स्थित इस

झील और झील के बीच में स्थित छोटेछोटे भूखंड इसकी खूबसूरती में चार चांद लगाते हैं।

खाजीनाग मंदिर

१२वीं शताब्दी में बना खाजीनाग का मंदिर लोगों की धार्मिक आस्था और श्रृद्धा का प्रतीक है। नाग को समर्पित

इस मंदिर में नाग की मूर्तियों के अलावा, मंडप में पांडवों द्वारा कौरवों पर हुई जीत की छवियों को छत की लकड़ी पर देखा जा सकता है, जो इसकी ऐतिहासिकता को और समृद्ध करती है।

खजियार तक सड़क मार्ग होने के कारण आप किसी भी वाहन द्वारा यहां पहुंच सकते हैं। दिल्ली से खजियार की दूरी लगभग ५६५ किमी. और चंडीगढ़ से २१५ किमी. है। नजदीक का रेलवे स्टेशन पठानकोट (८० किमी.) और नजदीक के हवाई अड्डे पठानकोट (८० किमी.), गग्गल (१८० किमी.) और कांगड़ा हैं।

कब जाएं

अप्रैल से अक्टूबर खजियार घूमने का सही मौसम है। उसके बाद के महीनों में यहां बर्फबारी होने लगती है।


MANDU - मांडू - मध्य प्रदेश में बसा है एक और कश्मीर

मध्य प्रदेश में बसा है एक और कश्मीर



मध्य प्रदेश में स्थित माण्डू का दर्शन वादिये कश्मीर का आभास देता है। यहां हरी-भरी वादियां, नर्मदा का सुरम्य तट ये सब मिलकर माण्डू को मालवा का स्वर्ग बनाते हैं। यहां की माटी के बारे में कहा जाता है कि ‘मालवा माटी गहर-गंभीर। पग-पग रोटी डग-डग नीर।’ अबुल फजल को माण्डू का मायाजाल इतना भ्रमित करता था कि उन्हें लिखना पड़ा कि माण्डू पारस पत्थर की देन है। माण्डू ने मुख्य रूप से चार वंशों का कार्यकाल देखा है-परमार काल, सुल्तान काल, मुगल काल और पॅवार काल।

परमार राजाओं ने बसाया माण्डू

माण्डू को रचने-बसाने का प्रथम श्रेय परमार राजाओं को है। हर्ष, मुंज, सिंधु और राजा भोज इस वंश के महत्वपूर्ण शासक रहें हैं। किंतु इनका ध्यान माण्डू की अपेक्षा धार पर ज्यादा था, जो माण्डू से महज 30 किलोमीटर है। परमार वंश के अंतिम महत्वपूर्ण नरेश राजा भोज का ध्यान वास्तु की अपेक्षा साहित्य पर अधिक था और उनके समय संस्कृत के महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे गए। उनकी मृत्यु पर लेखकों ने यह कहकर विलाप किया कि अब सरस्वती निराश्रित हो गई हैं।

“अद्य धारा निराधारा निरालंबा सरस्वती”

अद्वितीय वास्तुशिल्प

सुल्तानों के काल में यहां महत्वपूर्ण निर्माण हुए। दिलावर खां गोरी ने इसका नाम बदलकर शादियाबाद (आनंद नगरी) रखा। होशंगशाह इस वंश का महत्वपूर्ण शासक था। मुहम्मद खिलजी ने मेवाड़ के राणा कुम्भा पर विजय के उपलक्ष्य में अशर्फी महल से जोड़कर सात मंजिला विजय स्तंभ का निर्माण कराया (अब इसकी केवल एक ही मंजिल सलामत है)। हालांकि यह तथ्य विवादित है क्योंकि राणा कुम्भा ने भी मुहम्मद खिलजी पर विजय की स्मृति में चित्तौड़ के विश्व प्रसिद्ध विजय स्तंभ का निर्माण कराया था। आमतौर पर इतिहासकार मानते हैं कि राणा ने खिलजी को बंदी बनाया था और माफी पर उसे छोड़ा था। फिर भी फरिश्ता जैसे इतिहासकार मुहम्मद खिलजी की वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। वह लिखता है कि खिलजी हमेशा युद्ध में रहता है। अशर्फी महल का निर्माण मदरसे के तौर पर हुआ था और उसके कई कमरे आज भी काफी अच्छी अवस्था में हैं।

गयासुद्दीन इस वंश का अगला शासक था। फरिश्ता के अनुसार उसकी 15000 बेगमें थीं। माण्डू में उसने शाही महल का निर्माण अपनी बेगमों के लिए कराया। 500 अरबी और 500 तुर्की महिलाएं उसकी अंगरक्षक होती थी। जहांगीर के अनुसार उसने संपूर्ण नगर ही बेगमों के लिए सजाया था। अगले शासक नासिरुद्दीन ने रूपमती-बाजबहादुर का महल बनवाकर उनके प्रेम कथानक को अमर बनाया।

जब हिंदुस्तान के तख्तोताज पर अकबर जलवाफरोज हुआ तो उसने माण्डू की ओर विशेष ध्यान दिया। उसने अशर्फी महल का जीर्णोद्वार कराया। जहांगीर को माण्डू की रातें बेहद पसंद थीं। वह कई बार माण्डू आया और उसने जहाज महल का जीर्णोद्वार कराया। सन 1617 में जहांगीर जब माण्डू आया तो नूरजहां उसके साथ थी और उसने जलमहल में एक लड़की को जन्म दिया। सम्राट जहांगीर ने इसी अवसर पर सर टामस को रो को प्रसव चिकित्सा के लिए माण्डू आमंत्रित किया था और इस चिकित्सा से खुश होकर उसने अंग्रेजों को व्यापार की अनुमति दी थी।

शाहजहां 1617 और 1621 में जहांगीर के निमंत्रण पर माण्डू आया था। वह होशंगशाह के मकबरे से बेहद प्रभावित था। 1669 में वह अपने वास्तुकार हामिद के साथ विशेष रूप से इस मकबरे की निर्माण शैली देखने माण्डू आया और यहीं ताजमहल की रूप रेखा बनी। सफेद संगमरमर से बना यह मकबरा शाहजहां को लुभा गया। मकबरे के नीचे जिस प्रकार कब्र पर एक- एक बूंद पानी गिरता है, उसकी भी नकल ताजमहल में की गई। शाहजहां के वास्तुकार हामिद ने इस मकबरे के मुख्य द्वार पर एक पट्टिका लगाई जिससे आज भी पता चलता है कि ताजमहल की प्रेरणा हुंमायू का मकबरा न होकर माण्डू स्थित होशंगशाह का मकबरा है।

रानी रूपमती और बाजबहादुर का अमर प्रेम

आज माण्डू रानी रूपमती और बाजबहादुर के अमर प्रेम के कारण भी याद किया जाता है। बाजबहादुर अपने समय के संगीतज्ञ थे। अबुल फजल तो उन्हें महानतम संगीतज्ञ कहते हैं। फरिश्ता के अनुसार वह राग दीपक के उस्ताद थे। किन्तु उनकी प्रेयसी पर बादशाह की नजर लग गई। इसका परिणाम यह हुआ कि रानी रूपमती को जहर खाकर अपनी जान देनी पड़ी। बाजबहादुर कुछ दिनों तक अकबर के मनसबदार रहे लेकिन रूपमती के वियोग ने उन्हें अधिक दिनों तक जीने नहीं दिया और वह चल बसे। रूपमती खुद एक संगीत विशारदा थीं। बाजबहादुर- रूपमती के महल में आज भी वह भवन सुरक्षित है जिसमें रूपमती ने संगीत सम्राट तानसेन को हराया था।

जहाज महल

जहाज महल माण्डू का सर्वाधिक चर्चित स्मारक है। चारों तरफ पानी से घिरे होने के कारण यह जहाज का दृश्य उपस्थित करता है। इसकी आकृति टी के आकार की है। इसका निर्माण परमार राजा मुंज के समय हुआ किंतु इसके सुदृढ़ीकरण का श्रेय गयासुद्दीन खिलजी को है। माण्डू की सबसे बड़ी विशेषता इसकी अंत: भूगर्भीय संरचना है। माण्डू का फैलाव जितना ऊपर है उतना ही नीचे है। शत्रु के आक्रमण के समय यह भूगर्भीय रचना सुरक्षा का एक साधन भी थी। यह संरचना अपने निर्माण से आज भी विस्मृत करती है। धार व माण्डू के बीच बने 35 भवन एक अन्य आश्चर्यजनक निर्माण हैं। येभवन इको प्वाइंट का काम करते थे। सुल्तान जब माण्डू से धार के लिए निकलता था तो इन्हीं भवनों से उसके आने की खबर दी जाती थी। माण्डू से कुछ दूरी पर बूढ़ी माण्डू स्थित है। इसे ऋषि माण्डव्य या माण्डवी के नाम पर सिद्धक्षेत्र कहा गया है।

‘माण्डू सिटी ऑफ जॉय’ के लेखक गुलाम यजदानी के अनुसार माण्डू के भवन रोमन, ग्रीक ईरानी, यूनानी, गैथिक, अफगान और हिंदू शैली से बने हैं। हिंदू शैली में बने भवन मुख्य हैं- हिण्डोला भवन, जामी मस्जिद, होशंगशाह का मकबरा आदि। पत्तियां, कमल के फूल, त्रिशूल, कलश, बंदनवार आदि इसके गवाह हैं। अफगान शैली में बने भवन हैं- रूपमती मण्डप, बाजबहादुर महल दरिया खां का मकबरा, जहाज महल आदि।

आल्हा-ऊदल के वीरता की कहानी

आल्हा-ऊदल के बिना माण्डू का वर्णन अधूरा माना जाता है। आल्हाखण्ड में महाकवि जगनिक ने 52 लड़ाइयों का जिक्र किया है। उसमें पहली लड़ाई माड़ौगढ़ की मानी जाती है, जिसका साम्य इसी माण्डू से किया जाता है। इसलिए आल्हा गायकों के लिए माण्डू एक तीर्थस्थल सरीखा है। बुंदेलखंड के लोग यहां इस लड़ाई के अवशेष देखने आते हैं। राजा जम्बे का सिंहासन, आल्हा की सांग, सोनगढ़ का किला, जहां आल्हा के पिता और चाचा की खोपडि़यां टांगी गई थी और वह कोल्हू जिसमें दक्षराज-वक्षराज को करिंगा ने पीस दिया था। ये सब आज भी आल्हा के मुरीदों को आकर्षित करते हैं।

पर्यटन का स्थान माण्डव

मांडू का दौरा करने के बाद भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने टिप्पणी करते हुए कहा था की, "मांडू के अवशेष और खंडहर रोम की तुलना में बेहतर हैं और यह स्थान दुनिया भर के पर्यटकों को आकर्षित करने की क्षमता रखता है। मध्य प्रदेश में स्थित माण्डू का दर्शन वादिये कश्मीर का आभास देता है। ‘मालवा की मिटी का अलग ही एहसास है।’ वर्षा ऋतु में पर्यटन नगरी मांडू का नैसर्गिक सौंदर्य खिल उठा है। मांडू की वादियों ने हरियाली की चुनर ओढ़ ली है। चारों ओर फैली घनी धुंध के बीच ऐतिहासिक इमारतों को निहार कर पर्यटक आनंदित हो रहे है।

इस जगह पर वास्तुकला के खंडहर हैं

• होशांग शाह का मकबरा

• मांडू की जामी मस्जिद

• अशर्फी महल

• बाज बहादुर का महल

• रानी रूपमती का मण्डप महल

• नीलकंठ तीर्थ महल

• जहाज महल

• हिंडोला महल

• इको पाइंट

• `काकड़ा खो

•दरिया खां का मकबरा अनेक प्रकार की गुफाएं और मंदिर जुड़े हुए है स्वागत करते प्रवेश द्वार

मांडू में लगभग 12 प्रवेश द्वार है, जो मांडू में 45 किलोमीटर के दायरे में मुंडेर के समान निर्मित है. इन दरवाजों में दिल्ली दरवाजा प्रमुख है. यह मांडू का प्रवेश द्वार है. इसका निर्माण सन् 1405 से 1407 के मध्य में हुआ था. यह खड़ी ढाल के रूप में घुमावदार मार्ग पर बनाया गया है, जहाँ पहुँचने पर हाथियों की गति धीमी हो जाती थी.

इस दरवाजे में प्रवेश करते ही अन्य दरवाजों की शुरुआत के साथ ही मांडू दर्शन का आरंभ हो जाता है. मांडू के प्रमुख दरवाजों में आलमगीर दरवाजा, भंगी दरवाजा, रामपोल दरवाजा, जहाँगीर दरवाजा, तारापुर दरवाजा आदि अनेक दरवाजे हैं.

होशांग शाह का मकबरा

जिसमें संगमरमर की सुन्दर जालियाँ देखते ही बनती हैं। यह मकबरा अफगानी आर्किटेक्चर का एक बेहतरीन नमूना है। उस वक्त भी इसकी इतनी चर्चा थी कि इसके स्टाइल भरे संगमरमर के काम को देखने के लिए शाहजहां ने अपने दरबार के चार नामी आर्किटेक्ट भेजे थे। इनमें से एक उस्ताद हामिद था, जो ताज महल का डिजाइन तैयार करने वालों में से एक था। होशंगशाह की कब्र, जो कि भारत में मार्बल से बनाई हुई ऐसी पहली कब्र है, जिसमें आपको अफगानी शिल्पकला का बेहतर नमूना देखने को मिलता है

जामा मस्जिद

मांडू का मुख्य आकर्षण जामा मस्जिद है यह सन् 1454 में बनवाया गया मस्जिद है, जो इस विशाल मस्जिद का निर्माण कार्य होशंगशाह के शासनकाल में आरंभ किया गया था हालांकि यह मस्जिद बेहद सादगी से बनाई गई है, लेकिन इस मस्जिद की गिनती मांडू की नायाब व शानदार इमारतों में की जाती है. यह भी कहा जाता है कि जामा मस्जिद डेमास्कस (सीरिया देश की राजधानी) की एक प्रसिद्ध मस्जिद का प्रतिरूप है.

बाज बहादुर का महल

बाज बहादुर के महल का निर्माण 16वीं शताब्दी में किया गया था. इस महल में विशाल हॉल बने हुए हैं. यहाँ से हमें मांडू का सुंदर नजारा देखने को मिलता है.

अशर्फी महल

जामा मस्जिद के सामने ही अशरफी महल है. अशरफी का अर्थ होता है सोने के सिक्के. इस महल का निर्माण होशंगशाह खिलजी के उत्तराधिकारी मोहम्मद खिलजी ने इस्लामिक भाषा के विद्यालय (मदरसा) के लिए किया था. यहाँ विद्धार्थियों के रहने के लिए कई कमरों का निर्माण भी किया गया था. वैसे, इस महल में एक सात मंजिला टावर भी बना है, जिसे महमूद ने मेवाड़ के राणा खंबा को हराने के बाद बनवाया था। फिलहाल इस टावर की एक ही मंजिल के अवशेष बाकी हैं

रानी रूपमती का महल

मांडू किले के अन्तिम किनारे पर स्थित इस भवन को बाज बहादुर और रानी रूपमती की प्रेमकथा का प्रतीक कहा जाता है। पहाड़ी की चोटी पर बने इसके गलियारे से रानी रूपमती बाज बहादुर के महल और नीचे बहती नर्मदा नदी के नजारों को निहारा करती थी।

बाजबहादुर ने रानी रूपमती के लिए रेवा कुंड बनवया था रेवा कुंड का निर्माण बादशाह बाजबहादुर ने अपनी रानी रूपमती के महल में पानी की पर्याप्त व्यवस्था के स्त्रोत के रूप में किया था.

नीलकंठ

यहाँ शिवजी का मंदिर है जिसमें जाने के लिए अंदर सीढ़ी उतरकर जाना पड़ता है. इस मंदिर के सौंदर्य को शब्दों में बयाँ नहीं किया सकता. ऊपर पेड़ों से घिरे तालाब से एक धार नीचे शिवजी का अभिषेक करती जाती है.

मंदिर के समीप स्थित इस महल का निर्माण शाह बदगा खान ने अकबर की हिंदू पत्नी के लिए करवाया था. इसकी दीवारों पर अकबर कालीन कला के नमूने देखे जा सकते हैं.

जहाज महल

जहाज महल का निर्माण 1469 से 1500 ईस्वी के मध्य कराया था. यह महल जहाज की आकृति में दो कृत्रिम तालाबों कपूर तालाब व मुंज तालाब दो तालाबों के मध्य में बना हुआ है. लगभग 120 मीटर लंबे इस खूबसूरत महल को दूर से देखने पर ऐसा लगता है मानों तालाब के बीच में कोई सुंदर जहाज तैर रहा हो. संभवत: इसका निर्माण श्रृंगारप्रेमी सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी ने विशेष तौर पर अंत:पुर (महिलाओं के लिए बनाए गए महल) के रूप में किया था.

हिंडोला महल

हिंडोला महल मांडू के खूबसूरत महलों में से एक है. हिंडोला का अर्थ होता झूला. इस महल की दीवारे कुछ झुकी होने के कारण यह महल हवा में झुलते हिंडोले के समान दिखाई देता है. अत: इसे हिंडोला महल के नाम से जाना जाता है. हिंडोला महल का निर्माण ग्यासुद्दीन खिलजी ने 1469 से 1500 ईस्वी के मध्य सभा भवन के रूप में निर्मित सुंदर महल है. यहाँ के सुंदर कॉलम इसे और भी खूबसूरती प्रदान करते हैं. इस महल के पश्चिम में कई छोटे-बड़े सुंदर महल है. इसके पास में ही चंपा बाबड़ी है.

इको पाइंट

हाथी महल, दरिया खान की मजार, दाई का महल, दाई की छोटी बहन का महल, मस्जिद और जाली महल भी दर्शनीय हैं. यहाँ ईको पॉइंट पर पर्यटकों की भीड़ लगी ही रहती है. लोहानी गुफाएँ और उनके सामने स्थित सनसेट पॉइंट भी पर्यटकों को खींचता है.

काकड़ा खो

पर्यटकों का सबसे पहले प्राकृतिक वातावरण में 'काकड़ा खो' पर ही स्वागत होता है।पर्याप्त बारिश नहीं होने के कारण पर्यटक काकड़ा खो एवं अन्य क्षेत्रों में बहने वाले झरनों के अनुपम दृश्यों से अभी तक वंचित हैं। अगर मौसम में ऐसी ही ठंडक बनी रही तो आने वाले कई रविवारों को यहां भारी संख्या में पर्यटकों का आगमन होने की संभावना है।

दरिया खां का मकबरा

यह मकबरा, ताजमहल की वास्तुकला से मिलती है और होशांग शाह का मकबरा, चार मकबरे के कोने में स्थित है। इसके अलावा, कब्र एक ऊंचे मंच पर बनी हुई है और इसके चारों ओर वर्गाकार रूप में उच्च मेहराब भी बनी हुई है।

"मांडू प्रतिनिधि के अनुसार इस नजारे को देखने के लिए भी पर्यटक यहां रुकते हैं, परंतु यहां पर्याप्त रैलिंग नहीं है। कुछ स्थानों पर है, लेकिन वह टूट चुकी है। करीब एक हजार फुट नीचे गहरी खाई है। पूर्व में यहां हादसे हो चुके हैं।"

इसकी वजह यह है कि यहां पर वर्षा ऋतु में झरना बहने लगता है।जहां सावधानी हटने पर दुर्घटना घट सकती है। यहां सुरक्षा के पर्याप्त इंतजाम नहीं हैं।

मांडू जाने का बेहतर समय

जुलाई से मार्च माह का समय मांडू जाने के लिए बेहतर स्थान है। बेहतर होगा कि आप बरसात के मौसम में मांडू जाएँ क्योंकि इस मौसम में मांडू की खूबसूरती पर होती है।

मांडू से दूरी ; धार से दूरी - लगभग 33 किलोमीटर

इंदौर से दूरी - लगभग 100 किलोमीटर

कैसे, कब, कहां

मध्य प्रदेश में विंध्याचल की पहाडि़यों में 2000 फुट की ऊंचाई पर स्थित माण्डू वायु मार्ग द्वारा इंदौर और भोपाल से जुड़ा है। इंदौर यहां से 99 किलोमीटर दूर है। महू, इंदौर और खंडवा निकटतम रेलवे स्टेशन हैं। दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग पर रतलाम यहां से 124 किलोमीटर दूर है। धार से प्रत्येक आधे घंटे पर बस सेवा है। इसके अलावा इंदौर, खंडवा, रतलाम, उज्जैन और भोपाल से भी नियमित बस सेवा है।

यहां जाने का सर्वश्रेष्ठ समय जुलाई से मार्च तक है। माण्डू में रात्रि विश्राम के लिए अनेक प्राइवेट और सरकारी होटल हैं। मध्य प्रदेश पर्यटन के यहां मालवा रिसॉर्ट और मालवा रीट्रीट नाम से दो होटल हैं जहां नौ सौ से लेकर 18 सौ रुपये रोजाना तक किराये पर कमरे उपलब्ध हैं।

SABHAR:  Dainik Jagran

अर्धनारेश्वर मंदिर ज्योतिर्लिंग - मोह्गाव

 अर्धनारेश्वर मंदिर - मोह्गाव 




DEVI PATAN TEMPLE - देवीपाटन मंदिर

देवीपाटन मंदिर - हिन्दुत्व की सतत् जलती मशाल

उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले में स्थित देवीपाटन मंदिर राज्य ही नहीं, पूरे भारत में हिन्दुत्व की सतत जलती मशाल का एक अनोखा उदाहरण है।




पौराणिक मान्यता के अनुसार देवीपाटन मंदिर ही वह स्थल है, जहां देवी सती का वाम स्कंध वस्त्र सहित गिरा था और यही वह स्थान है, जहां सीता जी धरती माता के साथ पाताल में समा गई थीं। इसीलिए इसका नाम पातलेश्वरी पड़ा था, जिसे बाद में पाटेश्वरी नाम से जाना जाने लगा। यह मंदिर सिरिया नदी के किनारे अवस्थित है। मंदिर देशभर में फैले 51 शक्तिपीठों में से एक है। पुराणों के अनुसार महादेवी सती के पिता दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया था, लेकिन सती के पति भगवान शंकर को आमंत्रित नहीं किया। इससे नाराज सती अपने मायके में धू-धूकर जल रही यज्ञशाला में कूद पड़ीं और अपने प्राण त्याग दिये। यह समाचार जब भगवान शंकर को मिला तो उन्होंने दक्ष प्रजापति के घर पहुंचकर वहां यज्ञ को विध्वंस कर दिया और सती के शव को लेकर आकाश में तांडव नृत्य करने लगे। सभी देवी-देवता यह देखकर घबरा गये और उन्हें लगा कि अब प्रलय हो जायेगी। सभी ने भगवान विष्णु से इस विनाश से बचाने की गुहार लगायी। तब भगवान विष्णु ने लोक कल्याणार्थ अपने सुदर्शन चक्र से सती के अंगों को काट डाला। महादेवी सती के कटे अंग भारत के जिन-जिन स्थानों पर गिरे, उन्हें सिद्ध शक्तिपीठ माना गया। इस तरह 51 शक्तिपीठ हैं। लेकिन उपवस्त्रों, उपांगों और आभूषणों के गिरने के स्थानों को मिलाकर ऐसे स्थानों की संख्या 108 है। इस स्थान की पुष्टि पुराणों में उल्लिखित इस श्लोक से भी होती है-

पटेन सहित स्कन्ध पपात्र यत्र भूतले, तत्र पाटेश्वरी देवी इति ख्याता महीतले।

लोकश्रुति के अनुसार त्रेतायुग में भगवान श्रीराम अपनी अर्धांगिनी देवी सीता को राक्षस रावण के संहार के बाद जब अयोध्या लाये तो उन्हें पुन: अग्नि परीक्षा देनी पड़ी। हालांकि लंका में ही उन्होंने अग्नि में प्रवेश कर परीक्षा दे दी थी। सीता को काफी दु:ख हुआ। जिस धरती माता की गोद से उनका प्रादुर्भाव हुआ था उसी मां को उन्होंने पुकारा तो जमीन फट गयी और एक सिंहासन पर बैठकर पाताल लोक से ऊपर आयीं। अपनी धरती मां के साथ सीता जी भी पाताल लोक चली गयीं। इसलिए इस स्थान का नाम पातलेश्वरी देवी पड़ा, जो कालांतर में पाटेश्वरी देवी नाम से विख्यात हुआ। आज भी मंदिर में पाताल तक सुरंग बताई जाती है, जो चांदी के चबूतरे के रूप में दृष्टिगत है। प्रसाद पहले इसी चबूतरे पर चढ़ाया जाता था लेकिन सुरक्षा की दृष्टि से अब प्रसाद बाहर चढ़ाया जाता है। चबूतरे के पास एक भव्य दुर्गा प्रतिमा स्थापित है।

देवीपाटन मंदिर भारत-नेपाल के बीच मित्रता को न केवल सतत अक्षुण्ण बनाये हुए है, वरन उसे प्रगाढ़ बनाये रखने में महती भूमिका निभाता है। नेपाल के दांग-चोघड़ा मठ में स्थापित पीर रत्ननाथ को सिद्धि भी देवीपाटन में मिली थी। भगवान शिव के अवतार के रूप में अवतरित गुरु गोरक्षनाथ के शिष्य रत्ननाथ के दो मठ थे। रत्ननाथ की तपस्या से खुश होकर मां साक्षात् प्रकट हुर्इं और वर मांगने के लिए कहा तो पीर रत्ननाथ ने उनसे यही वर मांगा कि उनकी पूजा इस मठ में भी हो। मां दुर्गा ने उनको ऐसा ही आशीर्वाद दिया। देवीपाटन मंदिर में नेपाल से पीर रत्ननाथ की शोभायात्रा प्रत्येक वासंती नवरात्र की पंचमी को यहां पहुंचती है और पांच दिन तक वहां से आये पुजारियों द्वारा मंदिर में पूजा के साथ-साथ रत्ननाथ की भी पूजा की जाती है। इस दौरान मंदिर में लगे घंटे आदि नहीं बजाये जाते हैं। रत्ननाथ की पूजा में शामिल होने के लिए भारत और नेपाल के हजारों श्रद्धालु भी इस अवसर पर मौजूद रहते हैं।

यह स्थल कई महापुरुषों की कर्मस्थली का साक्षी भी है। मंदिर के इतिहास के अनुसार भगवान परशुराम ने यहीं तपस्या की थी। द्वापर युग में सूर्यपुत्र कर्ण ने भी यहीं भगवान परशुराम से दिव्यास्त्रों की दीक्षा ली थी। कहते हैं कर्ण मंदिर के उत्तर स्थित सूर्यकुड में प्रतिदिन स्नान कर उसी जल से देवी की आराधना करते थे। वही परंपरा आज भी चली आ रही है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार राजा कर्ण ने कराया था। औरंगजेब ने अपने सिपहसालार मीर समर को इसे नष्ट और भ्रष्ट करने का जिम्मा सौंपा था, जो सफल नहीं हो सका और देवी प्रकोप का शिकार हो गया। उसकी समाधि मंदिर के पूरब में आज भी अवस्थित है।

साभार : शशि सिंह, पाञ्चजन्य