Wednesday, November 18, 2015

मोढ़ेरा के विश्व प्रसिद्ध सूर्य मंदिर



मोढ़ेरा के विश्व प्रसिद्ध सूर्य मंदिर, जो अहमदाबाद से तकरीबन सौ किलोमीटर की दूरी पर पुष्पावती नदी के तट पर स्थित है।

माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण सम्राट भीमदेव सोलंकी प्रथम (ईसा पूर्व 1022-1063 में) ने करवाया था। इस आशय की पुष्टि एक शिलालेख करता है जो मंदिर के गर्भगृह की दीवार पर लगा है, जिसमें लिखा गया है- 'विक्रम संवत 1083 अर्थात् (1025-1026 ईसा पूर्व)।'

यह वही समय था जब सोमनाथ और उसके आसपास के क्षेत्रों को विदेशी आक्रांता महमूद गजनी ने अपने कब्जे में कर लिया था। गजनी के आक्रमण के प्रभाव के अधीन होकर सोलंकियों ने अपनी शक्ति और वैभव को गँवा दिया था। सोलंकी साम्राज्य की राजधानी कही जाने वाली 'अहिलवाड़ पाटण' भी अपनी महिमा, गौरव और वैभव को गँवाती जा रही थी जिसे बहाल करने के लिए सोलंकी राज परिवार और व्यापारी एकजुट हुए और उन्होंने संयुक्त रूप से भव्य मंदिरों के निर्माण के लिए अपना योगदान देना शुरू किया।

सोलंकी 'सूर्यवंशी' थे, वे सूर्य को कुलदेवता के रूप में पूजते थे अत: उन्होंने अपने आद्य देवता की आराधना के लिए एक भव्य सूर्य मंदिर बनाने का निश्चय किया और इस प्रकार मोढ़ेरा के सूर्य मंदिर ने आकार लिया। भारत में तीन सूर्य मंदिर हैं जिसमें पहला उड़ीसा का कोणार्क मंदिर, दूसरा जम्मू में स्थित मार्तंड मंदिर और तीसरा गुजरात के मोढ़ेरा का सूर्य मंदिर।


शिल्पकला का अद्मुत उदाहरण प्रस्तुत करने वाले इस विश्व प्रसिद्ध मंदिर की सबसे बड़ी खासियत यह है कि पूरे मंदिर के निर्माण में जुड़ाई के लिए कहीं भी चूने का उपयोग नहीं किया गया है। ईरानी शैली में निर्मित इस मंदिर को भीमदेव ने दो हिस्सों में बनवाया था। पहला हिस्सा गर्भगृह का और दूसरा सभामंडप का है। मंदिर के गर्भगृह के अंदर की लंबाई 51 फुट और 9 इंच तथा चौड़ाई 25 फुट 8 इंच है।

मंदिर के सभामंडप में कुल 52 स्तंभ हैं। इन स्तंभों पर बेहतरीन कारीगरी से विभिन्न देवी-देवताओं के चित्रों और रामायण तथा महाभारत के प्रसंगों को उकेरा गया है। इन स्तंभों को नीचे की ओर देखने पर वह अष्टकोणाकार और ऊपर की ओर देखने पर वह गोल दृश्यमान होते हैं।

इस मंदिर का निर्माण कुछ इस प्रकार किया गया था कि जिसमें सूर्योदय होने पर सूर्य की पहली किरण मंदिर के गर्भगृह को रोशन करे। सभामंडप के आगे एक विशाल कुंड स्थित है जिसे लोग सूर्यकुंड या रामकुंड के नाम से जानते हैं।

अलाउद्दीन खिलजी ने अपने आक्रमण के दौरान मंदिर को काफी नुकसान पहुँचाया और मंदिर की मूर्तियों की तोड़-फोड़ की। वर्तमान में भारतीय पुरातत्व विभाग ने इस मंदिर को अपने संरक्षण में ले लिया है।

पुराणों में भी मोढ़ेरा का उल्लेख: स्कंद पुराण और ब्रह्म पुराण के अनुसार प्राचीन काल में मोढ़ेरा के आसपास का पूरा क्षेत्र 'धर्मरन्य' के नाम से जाना जाता था। पुराणों के अनुसार भगवान श्रीराम ने रावण के संहार के बाद अपने गुरु वशिष्ट को एक ऐसा स्थान बताने के लिए कहा जहाँ पर जाकर वह अपनी आत्मा की शुद्धि और ब्रह्म हत्या के पाप से निजात पा सकें। तब गुरु वशिष्ठ ने श्रीराम को 'धर्मरन्य' जाने की सलाह दी थी। यही क्षेत्र आज मोढ़ेरा के नाम से जाना जाता है।

Tuesday, November 3, 2015

CHAMBA - चंबा (हिमाचल)

चंबा भारत के हिमाचल प्रदेश प्रान्त का एक नगर है। हिमाचल प्रदेश का चंबा अपने रमणीय मंदिरों और हैंडीक्राफ्ट के लिए सर्वविख्यात है। रवि नदी के किनारे 996 मीटर की ऊंचाई पर स्थित चंबा पहाड़ी राजाओं की प्राचीन राजधानी थी। चंबा को राजा साहिल वर्मन ने 920 ई. में स्थापित किया था। इस नगर का नाम उन्होंने अपनी प्रिय पुत्री चंपावती के नाम पर रखा। चारों ओर से ऊंची पहाड़ियों से घिरे चंबा ने प्राचीन संस्कृति और विरासत को संजो कर रखा है। प्राचीन काल की अनेक निशानियां चंबा में देखी जा सकती हैं।

चंपावती मंदिर


यह मंदिर राजा साहिल वर्मन की पुत्री को समर्पित है। यह मंदिर शहर की पुलिस चौकी और कोषागार भवन के पीछे स्थित है। कहा जाता है कि चंपावती ने अपने पिता को चंबा नगर स्थापित करने के लिए प्रेरित किया था। मंदिर को शिखर शैली में बनाया गया है। मंदिर में पत्थरों पर खूबसूरत नक्काशी की गई है और छत को पहिएनुमा बनाया गया है।

लक्ष्मीनारायण मंदिर


यह मंदिर पांरपरिक वास्तुकारी और मूर्तिकला का उत्कृष्‍ट उदाहरण है। चंबा के 6 प्रमुख मंदिरों में यह मंदिर सबसे विशाल और प्राचीन है। कहा जाता है कि सवसे पहले यह मन्दिर चम्बा के चौगान में स्थित था परन्तु बाद में इस मन्दिर को राजमहल (जो वर्तमान में चम्बा जिले का राजकीय महाविद्यालय है) के साथ स्थापित कर दिया गया। भगवान विष्णु को समर्पित यह मंदिर राजा साहिल वर्मन ने 10 वीं शताब्दी में बनवाया था। यह मंदिर शिखर शैली में निर्मित है। मंदिर में एक विमान और गर्भगृह है। मंदिर का ढांचा मंडप के समान है। मंदिर की छतरियां और पत्थर की छत इसे बर्फबारी से बचाती है।

भूरी सिंह संग्रहालय


यह संग्रहालय 14 सितंबर 1908 ई. को खुला था। 1904-1919 तक यहां शासन करने वाले राजा भूरी सिंह के नाम पर इस संग्रहालय का नाम पड़ा। भूरी सिंह ने अपनी परिवार की पेंटिग्स का संग्रह संग्रहालय को दान कर दिया था। चंबा की सांस्कृतिक विरासत को संजोए इस संग्रहालय में बसहोली और कांगड़ा आर्ट स्कूल की लघु पेंटिग भी रखी गई हैं।

भंडाल घाटी


यह घाटी वन्य जीव प्रेमियों को काफी लुभाती है। यह खूबसूरत घाटी 6006 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह घाटी चंबा से 22 किमी .दूर सलूनी से जुड़ी हुई है। यहां से ट्रैकिंग करते हुए जम्मू कश्मीर पहुंचा जा सकता है।

भरमौर


चंबा की इस प्राचीन राजधानी को पहले ब्रह्मपुरा नाम से जाना जाता था। 2195 मीटर की ऊंचाई पर स्थित भरमौर घने जंगलों से घिरा है। किवदंतियों के अनुसार 10 वीं शताब्दी में यहां 84 संत आए थे। उन्होंने यहां के राजा को 10 पुत्र और एक पुत्री चंपावती का आशीर्वाद दिया था। यहां बने मंदिर को चौरासी नाम से जाना जाता है। लक्ष्मी देवी, गणेश और नरसिंह मंदिर चौरासी मंदिर के अन्तर्गत ही आतें हैं। भरमौर से कुगती पास और कलीचो पास की ओर जाने के लिए उत्तम ट्रैकिंग रूट है।

चौगान


यह खुला घास का मैदान है। लगभग 1 किमी. लंबा और 75 मीटर चौड़ा यह मैदान चंबा के बीचों बीच स्थित है। चौगान में प्रतिवर्ष मिंजर मेले का आयोजन किया जाता है। एक सप्ताह तक चलने वाले इस मेले में स्थानीय निवासी रंग बिरंगी वेशभूषा में आते हैं। इस अवसर पर यहां बड़ी संख्या में सांस्कृतिक और खेलकूद की गतिविधियां आयोजित की जाती हैं।

वजरेश्वरी मंदिर

यह प्राचीन मंदिर एक हजार साल पुराना माना जाता है। प्रकाश की देवी वजरेश्वरी को समर्पित यह मंदिर नगर के उत्तरी हिस्से में स्थित जनसाली बाजार के अंत में स्थित है। शिखर शैली में निर्मित इस मंदिर का छत लकड़ी से बना है और एक चबूतरे पर स्थित है। मंदिर के शिखर पर बेहतरीन नक्काशी की गई है।

सुई माता मंदिर


चंबा के निवासियों के लिए अपना जीवन त्यागने वाली यहां की राजकुमारी सुई को यह मंदिर समर्पित है। यह मंदिर शाह मदार हिल की चोटी पर स्थित है। यहाँ सुई माता नें कुछ समय के लिए विश्राम किया था। यहाँ सुई माता की याद में यहां हर साल सुई माता का मेला चैत महीने से शुरु होकर बैसाख महीने तक चलता है। यह मेला महिलाओं और बच्चों द्वारा मनाया जाता है। मेले में रानी के गीत गाए जाते हैं और रानी के बलिदान को श्रद्धांजलि‍ देने के लिए लोग सुई मन्दिर से रानी के वलिदान स्थल मलूना तक जाते हैं।

चामुन्डा देवी मंदिर


यह मंदिर पहाड़ की चोटी पर स्थित है जहां से चंबा की स्लेट निर्मित छतों और रावी नदी व उसके आसपास का सुन्दर नजारा देखा जा सकता है। मंदिर एक ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है और देवी दुर्गा को समर्पित है। मंदिर के दरवाजों के ऊपर, स्तम्भों और छत पर खूबसूरत नक्काशी की गई है। मंदिर के पीछे शिव का एक छोटा मंदिर है। मंदिर चंबा से तीन किलोमीटर दूर चंबा-जम्मुहार रोड़ के दायीं ओर है। भारतीय पुरातत्व विभाग मंदिर की देखभाल करता है।

हरीराय मंदिर

भगवान विष्णु का यह मंदिर 11 शताब्दी में बना था। कहा जाता है कि यह मंदिर सालबाहन ने बनवाया था। मंदिर चौगान के उत्तर पश्चिम किनारे पर स्थित है। मंदिर के शिखर पर बेहतरीन नक्काशी की गई है।हरीराय मंदिर में चतुमूर्ति आकार में भगवान विष्णु की कांसे की बनी अदभुत मूर्ति स्थापित है। केसरिया रंग का यह मंदिर चंबा के प्राचीनतम मंदिरों में एक है।

लखाना मंदिर भरमौर 


यह हिमाचल प्रदेश का शिखर शैली में बना बहुत पुराना मंदिर है। देवी लक्ष्मी को यहां महिसासुरमर्दिनी रूप में दिखाया गया है। मंदिर में स्थापित देवी की पीतल की प्रतिमा राजा मेरू वर्मन के उस्ताद कारीगर मुग्गा ने बनाई थी। यह मंदिर हिमाचल प्रदेश का प्रमुख और पवित्र तीर्थ स्थल है। यहां हर साल मणिमहेश यात्रा का आयोजन होता है।

रंगमहल


चंबा के शाही परिवारों का यह निवास स्थल राजा उमेद सिंह ने 1748 से 1764 के बीच बनवाया था। महल का पुनरोद्धार राजा शाम सिंह के कार्यकाल में ब्रिटिश इंजीनियरों की मदद से किया गया। 1879 में कैप्टन मार्शल ने महल में दरबार हॉल बनवाया। बाद में राजा भूरी सिंह के कार्यकाल में इसमें जनाना महल जोड़ा गया। महल की बनावट में ब्रिटिश और मुगलों का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। 1958 में शाही परिवारों के उत्तराधिकारियों ने हिमाचल सरकार को यह महल बेच दिया। बाद में यह महल सरकारी कॉलेज और जिला पुस्तकालय के लिए शिक्षा विभाग को सौंप दिया गया।

चंबा जाने के लिए नजदीकी एयरपोर्ट पंजाब के अमृतसर में है जो चंबा से 240 किमी. दूर है। अमृतसर से चंबा जाने के लिए बस या टैक्सी की सेवाएं ली जा सकती हैं। 

चंबा से 140 किमी. दूर पठानकोट नजदीकी रेलवे स्टेशन है। पठानकोट दिल्ली और मुम्बई से नियमित ट्रैनों के माध्यम से जुड़ा हुआ है। यहां से बस या टैक्सी के द्वारा चंबा पहुंचा जा सकता है। 

चंबा सड़क मार्ग से हिमाचल के प्रमुख शहरों व दिल्ली और चंडीगढ़ से जुड़ा हुआ है। राज्य परिवहन निगम की बसें चंबा के लिए नियमित रूप से चलती हैं।

जाब पर्वतीय प्रदेश चंबा का अरबी नाम है। इसके जाफ, हाब, आब और गाब नाम भी हैं। इसकी प्राचीन राजधानी ब्रह्मपुर (वयराटपट्टन) थी। हुएनत्सांग ने इसका वर्णन करते हुए लिखा है कि यह अलखनंदा और करनाली नदियों के बीच बसा है। कुछ काल बाद इस प्रदेश की राजधानी चंबा हो गई। १५ अप्रैल १९४८ में इसका विलयन भारत सरकार द्वारा शासित हिमाचल प्रदेश में हो गया।

अरब लेखकों ने सामान्यत: चंबा के सूर्यवंशी राजपूत शासकों को 'जाब' की उपाधि के साथ लिखा है। हब्न रुस्ता का मत है कि यह शासन सालुकि वंश के थे परंतु राजवंश की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। ८४६ ई. में सर्वप्रथम हब्न खुर्रदद्बी ने 'जाब' का प्रयोग किया, पर ऐसा लगता है कि इस शब्द की उत्पत्ति अरब साहित्य में इससे पूर्व हो चुकी थी। इस प्रकार यह प्रामाणिक माना जाता है कि चंबा नगर ९ वीं शताब्दी के प्रथम दशक में विद्यमान था। इब्न रुस्ता ने लिखा है कि चंबा के शासक प्राय: गुर्जरों और प्रतिहारों से शत्रुता रखते थे।

साभार: विकिपीडिया