Thursday, November 20, 2014

MA CHANDRABANI MANDIR - सिद्धपीठ मां चन्द्रबदनी मंदिर।








देवप्रयाग। टिहरी मार्ग पर चन्द्रकूट पर्वत पर स्थित लगभग आठ हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है सिद्धपीठ मां चन्द्रबदनी मंदिर। देवप्रयाग से 33 किमी की दूरी पर यह सिद्धपीठ स्थित है। धार्मिक ऐतिहासिक व सांस्कृतिक दृष्टि में चन्द्रबदनी उत्तराखंड की शक्तिपीठों में महत्वपूर्ण है।

स्कंदपुराण, देवी भागवत व महाभारत में इस सिद्धपीठ का विस्तार से वर्णन हुआ है। प्राचीन ग्रन्थों में भुवनेश्वरी सिद्धपीठ के नाम से इसका उल्लेख है। पौराणिक आख्यान के अनुसार भगवान शंकर का सती की मृत देह के प्रति मोह समाप्त करने के लिए भगवान विष्णु ने सती के पार्थिव काया को सुदर्शन चक्र से कई भागों में बांट दिया था। सती का कटीभाग चन्द्रकूट पर्वत पर गिरने से यहां पर भुवनेश्वरी सिद्धपीठ स्थापित हुई। कालांतर में भगवान शंकर इस स्थल पर आए। सती के विरह से व्याकुल भगवान शिव यहां सती का स्मरण कर सुदबुद खो बैठे। इस पर महामाया सती यहां अपने चन्द्र के समान शीतल मुख के साथ प्रकट हुई। इसको देखकर भगवान शंकर का शोक मोह दूर हो गया और प्रसन्नचित हो उठे। देव-ग‌र्न्धवों ने महाशक्ति के इस रूप का दर्शन कर स्तुति की। इसके बाद से यह तीर्थ चन्द्रबदनी के नाम से विख्यात हुआ। महाभारत कीएक कथा के अनुसार चन्द्रकूट पर्वत पर अश्वत्थामा को फेंका गया था। चिरंजीव अश्वत्थामा अभी भी हिमालय में विचरते हैं यह माना जाता है। गर्भगृह में भूमि पर भुवनेश्वरी यंत्र स्थापित है। जबकि ऊपर की ओरस्थित यंत्र सदा ढका रहता है। पुजार गांव निवासीब्राहमण ही मंदिर में पूजा अर्चना करते आ रहे हैं।

मंदिर में माँ चन्द्रबदनी की मूर्ति न होकर श्रीयंत्र ही अवस्थित है। किवंदती है कि सती का बदन भाग यहाँ पर गिरने से देवी की मूर्ति के कोई दर्शन नहीं कर सकता है। पुजारी लोग आँखों पर पट्टी बाँध कर माँ चन्द्रबदनी को स्नान कराते हैं। जनश्रुति है कि कभी किसी पुजारी ने अज्ञानतावश अकेले में मूर्ति देखने की चेष्टा की थी, तो पुजारी अंधा हो गया था।
चंद्रबदनी मंदिर में माता के दर्शन करने को हमेशा श्रद्धालुओं की भीड़ जुटी रहती है। सिद्धपीठ चन्द्रबदनी में जो भी श्रद्धालु भक्तिभाव से अपनी मनौती माँगने जाता है, माँ जगदम्बे उसकी मनौती पूर्ण करती है। मनौती पूर्ण होने पर श्रद्धालु जन कन्दमूल, फल, अगरबत्ती, धूपबत्ती, चुन्नी, चाँदी के छत्तर चढ़ावा के रूप में समर्पित करते हैं। वास्तव में चन्द्रबदनी मंदिर में एक अलौकिक आत्मशान्ति मिलती है। इसी आत्म शान्ति को तलाशने कई विदेशी, स्वदेशी श्रद्धालुजन माँ के दर्शनार्थ आते हैं। अब मंदिर के निकट तक मोटर मार्ग उपलब्ध है। प्राकृतिक सौन्दर्य से लबालब चन्द्रकूट पर्वत पर अवस्थित माँ चन्द्रबदनी भक्तों के दर्शनार्थ हरपल प्रतीक्षारत है।

साभार: देवालय परिचय - Devalaya Parichay, फेसबुक 

Tuesday, November 18, 2014

NAINA DEVI MANDIR - NAINITAL - मां नैना देवी मंदिर-नैनीताल उत्तराखंड









प्रकृति के वरदान से विभूषित देवभूमि उत्तराखंड की हृदयस्थली है नैनीताल शहर और नैनीताल की हृदयस्थली है नैनी झील। इसी नैनी झील के उत्तरी सिरे पर स्थित है मां नैना देवी का मंदिर। स्थानीय विश्वास के अनुसार यह मंदिर शक्तिपीठ है। मान्यता है कि यहां सती के नेत्र गिरे थे, इसलिए इसका नाम नैना देवी प्रसिद्ध हुआ। मंदिर परिसर में प्रवेश करते ही बायीं तरफ एक विशाल पीपल का वृक्ष है और दायीं तरफ हनुमान जी की प्रतिमा। मंदिर के मुख्य परिसर में प्रवेश करने के बाद शेरों की दो प्रतिमाएं हैं। मुख्य परिसर में तीन देवी-देवता विराजमान हैं। बीच में मुख्य देवी नैना देवी हैं, जिन्हें दो नेत्रों द्वारा दर्शाया गया है। उनकी बायीं तरफ मां काली हैं और दायीं तरफ भगवान गणेश।

नैना देवी की प्रतिमा वाले भवन के ठीक सामने काले पत्थर का एक बहुत ही सुंदर शिवलिंग भी स्थापित है। कहा जाता है कि मंदिर का निर्माण 15वीं शताब्दी में हुआ था, लेकिन 1880 में हुए एक भूस्खलन की वजह से यह मंदिर नष्ट हो गया। बाद में 1883 में इस मंदिर का पुनर्निर्माण कराया गया। नैना देवी को नैनीताल शहर की कुल देवी कहा जाता है और इस शहर का नामकरण उन्हीं के नाम पर किया गया है। नैनी झील को ‘लघु मानसरोवर’ भी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि अत्रि ऋषि, पुलस्त्य ऋषि और पुलह ऋषि ने मानसरोवर का जल लाकर इस झील का निर्माण किया था, इसलिए इसका एक नाम ‘त्रिऋषि सरोवर’ भी है। यूं तो नैना देवी मंदिर में वर्ष भर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है, लेकिन नवरात्रि, सावन मेला और चैत्र मेला के दौरान यहां बाकी समय की अपेक्षा ज्यादा श्रद्धालु आते हैं। मंदिर से आम के आकार वाली नैनी झील का दृश्य अत्यंत मनोरम दिखाई देता है। मंदिर दर्शन के लिए सुबह 6 बजे से रात 10 बजे तक खुला रहता है।

साभार : देवालय परिचय - Devalaya Parichay, फेसबुक. 

Wednesday, September 24, 2014

SIDDHNATH MAHADEV - NEMAWAR - नेमावर के प्राचीन सिद्धनाथ महादेव


धर्मयात्रा की इस कड़ी में हम आपको ले चलते हैं पुण्य सलिला नर्मदा के किनारे बसे नगर नेमावर के प्राचीन सिद्धनाथ महादेव के मंदिर। महाभारतकाल में नाभिपुर के नाम से प्रसिद्ध यह नगर व्यापारिक केंद्र हुआ करता था मगर अब यह पर्यटन स्थल का रूप ले रहा है। राज्य शासन के रिकॉर्ड में इसका नाम 'नाभापट्टम' था। यहीं पर नर्मदा नदी का 'नाभि' स्थान है।

किंवदंती है कि सिद्धनाथ मंदिर के शिवलिंग की स्थापना चार सिद्ध ऋषि सनक, सनन्दन, सनातन और सनतकुमार ने सतयुग में की थी। इसी कारण इस मंदिर का नाम सिद्धनाथ है। इसके ऊपरी तल पर ओमकारेश्वर और निचले तल पर महाकालेश्वर स्थित हैं। श्रद्धालुओं का ऐसा भी मानना है कि जब सिद्धेश्वर महादेव शिवलिंग पर जल अर्पण किया जाता है तब ॐ की प्रतिध्‍वनि उत्पन्न होती है।

ऐसी मान्यता है कि इसके शिखर का निर्माण 3094 वर्ष ईसा पूर्व किया गया था। द्वापर युग में कौरवों द्वारा इस मंदिर को पूर्वमुखी बनाया गया था, जिसको पांडव पुत्र भीम ने अपने बाहुबल से पश्चिम मुखी कर दिया था।

एक किंवदंती यह भी है कि सिद्धनाथ मंदिर के पास नर्मदा तट की रेती पर सुबह-सुबह पदचिन्ह नजर आते हैं, जहाँ पर कुष्‍ठ रोगी लोट लगाते हैं। ग्राम के बुजुर्गों का मानना है कि पहाड़ी के अंदर स्थित गुफाओं, कंदराओं में तपलीन साधु प्रात:काल यहाँ नर्मदा स्नान करने के लिए आते हैं। नेमावर के आस-पास प्राचीनकाल के अनेक विशालकाय पुरातात्विक अवशेष मौजूद हैं।

हिंदू और जैन पुराणों में इस स्थान का कई बार उल्लेख हुआ है। इसे सब पापों का नाश कर सिद्धिदाता ‍तीर्थस्थल माना गया है।

नर्मदा के तीर स्थित यह मंदिर हिंदू धर्म की आस्था का प्रमुख केंद्र है। 10वीं और 11वीं सदी के चंदेल और परमार राजाओं ने इस मंदिर का जिर्णोद्धार किया, जो अपने-आप में स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। मंदिर को देखने से ही मंदिर की प्राचीनता का पता चलता है। मंदिर के स्तंभों और दीवारों पर शिव, यमराज, भैरव, गणेश, इंद्राणी और चामुंडा की कई सुंदर मूर्तियाँ उत्कीर्ण है।

यहाँ शिवरात्रि, संक्रांति, ग्रहण, अमावस्या आदि पर्व पर श्रद्धालु स्नान-ध्यान करने आते हैं। साधु-महात्मा भी इस पवित्र नर्मदा मैया के दर्शन का लाभ लेते हैं।

कैसे पहुँचे :-
वायु मार्ग : यहाँ से सबसे नजदीकी हवाई अड्डा देवी अहिल्या एयरपोर्ट, इंदौर 130 किमी की दूरी पर स्थित है।
रेल मार्ग : इंदौर से मात्र 130 किमी दूर दक्षिण-पूर्व में हरदा रेलवे स्टेशन से 22 किमी तथा उत्तर दिशा में भोपाल से 170 किमी दूर पूर्व दिशा में स्थित है नेमावर।

सड़क मार्ग : नेमावर पहुँचने के लिए इंदौर से बस या टैक्सी द्वारा भी जाया जा सकता है।

साभार : अनिरुद्ध जोशी शतायु, वेब दुनिया

Monday, September 22, 2014

चार वटों में से एक सिद्धवट - SIDDHVAT



धर्मयात्रा की इस बार की कड़ी में हम आपको लेकर चलते हैं उज्जैन के सिद्धवट स्थान पर। उज्जैन के भैरवगढ़ के पूर्व में शिप्रा के तट पर प्रचीन सिद्धवट का स्थान है। इसे शक्तिभेद तीर्थ के नाम से जाना जाता है। हिंदू पुराणों में इस स्थान की महिमा का वर्णन किया गया है। हिंदू मान्यता अनुसार चार वट वृक्षों का महत्व अधिक है। अक्षयवट, वंशीवट, बौधवट और सिद्धवट के बारे में कहा जाता है कि इनकी प्राचीनता के बारे में कोई नहीं जानता।

*नासिक के पंचववटी क्षेत्र में सीता माता की गुफा के पास पाँच प्राचीन वृक्ष है जिन्हें पंचवट के नाम से जाना जाता है। वनवानस के दौरान राम, लक्ष्मण और सीता ने यहाँ कुछ समय बिताया था। इन वृक्षों का भी धार्मिक महत्व है। उक्त सारे वट वक्षों की रोचक कहानियाँ हैं। मुगल काल में इन वृक्षों को खतम करने के कई प्रयास हुए।

सिद्धवट के पुजारी ने कहा कि स्कंद पुराण अनुसार पार्वती माता द्वारा लगाए गए इस वट की शिव के रूप में पूजा होती है। पार्वती के पुत्र कार्तिक स्वामी को यहीं पर सेनापति नियुक्त किया गया था। यहीं उन्होंने तारकासुर का वध किया था। संसार में केवल चार ही पवित्र वट वृक्ष हैं। प्रयाग (इलाहाबाद) में अक्षयवट, मथुरा-वृंदावन में वंशीवट, गया में गयावट जिसे बौधवट भी कहा जाता है और यहाँ उज्जैन में पवित्र सिद्धवट हैं।



यहाँ तीन तरह की सिद्धि होती है संतति, संपत्ति और सद्‍गति। तीनों की प्राप्ति के लिए यहाँ पूजन किया जाता है। सद्‍गति अर्थात पितरों के लिए अनुष्ठान किया जाता है। संपत्ति अर्थात लक्ष्मी कार्य के लिए वृक्ष पर रक्षा सूत्र बाँधा जाता है और संतति अर्थात पुत्र की प्राप्ति के लिए उल्टा सातिया (स्वस्विक) बनाया जाता है। यह वृक्ष तीनों प्रकार की सिद्धि देता है इसीलिए इसे सिद्धवट कहा जाता है।

पंडित नागेश्वर कन्हैन्यालाल ने कहा कि यहाँ पर नागबलि, नारायण बलि-विधान का विशेष महत्व है। संपत्ति, संतित और सद्‍गति की सिद्धि के कार्य होते हैं। यहाँ पर कालसर्प शांति का विशेष महत्व है, इसीलिए कालसर्प दोष की भी पूजा होती है।

कालसर्प दोष का निदान कराने आईं पुना की श्वेता उपाध्याय ने कहा कि मेरी जन्मकुंडली में कालसर्प दोष था। हमें पता चला कि यहाँ कालसर्प दोष का निदान होता है तो मैं यहाँ पर दोष का निवारण कराने आई हूँ।

वर्तमान में इस सिद्धवट को कर्मकांड, मोक्षकर्म, पिंडदान, कालसर्प दोष पूजा एवं अंत्येष्टि के लिए प्रमुख स्थान माना जाता है। यह यात्रा आपकों कैसी लगी हमें जरूर बताएँ।

साभार : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु, वेबदुनिया 


Friday, September 19, 2014

KHATU SHYAM JI - खाटू श्याम : हारे का सहारा...





 माँ सैव्यम पराजित:। अर्थात जो हारे हुए और निराश लोगों को संबल प्रदान करता है।

वीर प्रसूता राजस्थान की धरा यूं तो अपने आंचल में अनेक गौरव गाथाओं को समेटे हुए है, लेकिन आस्था के प्रमुख केन्द्र खाटू की बात अपने आप में निराली है।

शेखावाटी के सीकर जिले में स्थित है परमधाम खाटू। यहां विराजित हैं भगवान श्रीकृष्ण के कलयुगी अवतार खाटू श्यामजी। श्याम बाबा की महिमा का बखान करने वाले भक्त राजस्थान या भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के कोने-कोने में मौजूद हैं।


खाटू का श्याम मंदिर बहुत ही प्राचीन है, लेकिन वर्तमान मं‍दिर की आधारशिला सन 1720 में रखी गई थी। इतिहासकार पंडित झाबरमल्ल शर्मा के मुताबिक सन 1679 में औरंगजेब की सेना ने इस मंदिर को नष्ट कर दिया था। मंदिर की रक्षा के लिए उस समय अनेक राजपूतों ने अपना प्राणोत्सर्ग किया था।

खाटू में भीम के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक की पूजा श्याम के रूप में की जाती है। ऐसी मान्यता है कि महाभारत युद्ध के समय भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को वरदान दिया था कि कलयुग में उसकी पूजा श्याम (कृष्ण स्वरूप) के नाम से होगी। खाटू में श्याम के मस्तक स्वरूप की पूजा होती है, जबकि निकट ही स्थित रींगस में धड़ स्वरूप की पूजा की जाती है।

हर साल फाल्गुन मास शुक्ल पक्ष में यहां विशाल मेला भरता है, जिसमें देश-विदेश से भक्तगण पहुंचते हैं। हजारों लोग यहां पदयात्रा कर पहुंचते हैं, वहीं कई लोग दंडवत करते हुए खाटू नरेश के दरबार में हाजिरी देते हैं। यहां के एक दुकानदार रामचंद्र चेजारा के मुताबिक नवमी से द्वादशी तक भरने वाले मेले में लाखों श्रद्धालु आते हैं। प्रत्येक एकादशी और रविवार को भी यहां भक्तों की लंबी कतारें लगी होती हैं।


खाटू मंदिर में पांच चरणों में आरती होती है- मंगला आरती प्रात: 5 बजे, धूप आरती प्रात: 7 बजे, भोग आरती दोपहर 12.15 बजे, संध्या आरती सायं 7.30 बजे और शयन आरती रात्रि 10 बजे होती है। गर्मियों के दिनों में इस समय थोड़ा बदलाव रहता है। कार्तिक शुक्ल एकादशी को श्यामजी के जन्मोत्सव के अवसर पर मंदिर के द्वार 24 घंटे खुले रहते हैं।

दर्शनीय स्थल : श्याम भक्तों के लिए खाटू धाम में श्याम बाग और श्याम कुंड प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं। श्याम बाग में प्राकृतिक वातावरण की अनुभूति होती है। यहां परम भक्त आलूसिंह की समाधि भी बनाई गई है। श्याम कुंड के बारे में मान्यता है कि यहां स्नान करने से श्रद्धालुओं के पाप धुल जाते हैं। पुरुषों और महिलाओं के स्नान के लिए यहां पृथक-पृथक कुंड बनाए गए हैं।

कैसे पहुँचें :

सड़क मार्ग : खाटू धाम से जयपुर, सीकर आदि प्रमुख स्थानों के लिए राजस्थान राज्य परिवहन निगम की बसों के साथ ही टैक्सी और जीपें भी यहां आसानी से उपलब्ध हैं।

रेलमार्ग : निकटतम रेलवे स्टेशन रींगस जंक्शन (15 किलोमीटर) है।

वायुमार्ग : यहां से निकटतम हवाई अड्‍डा जयपुर है, जो कि यहाँ से करीब 80 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

लेख साभार : वृजेन्द्रसिंह झाला, वेब दुनिया

Friday, September 5, 2014

GARH KALIKA MANDIR - UJJAIN - उज्जैन की मां गढ़ कालिका का मंदिर



धर्मयात्रा की इस बार की कड़ी में हम आपको ले चलते हैं उज्जैन के कालीघाट स्थित कालिका माता के प्राचीन मंदिर में, जिसे गढ़ कालिका के नाम से जाना जाता है। देवियों में कालिका को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है।

गढ़ कालिका के मंदिर में माँ कालिका के दर्शन के लिए रोज हजारों भक्तों की भीड़ जुटती है। तांत्रिकों की देवी कालिका के इस चमत्कारिक मंदिर की प्राचीनता के विषय में कोई नहीं जानता, फिर भी माना जाता है कि इसकी स्थापना महाभारतकाल में हुई थी, लेकिन मूर्ति सतयुग के काल की है। बाद में इस प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट हर्षवर्धन द्वारा किए जाने का उल्लेख मिलता है। स्टेटकाल में ग्वालियर के महाराजा ने इसका पुनर्निर्माण कराया।


वैसे तो गढ़ कालिका का मंदिर शक्तिपीठ में शामिल नहीं है, किंतु उज्जैन क्षेत्र में माँ हरसिद्धि ‍शक्तिपीठ होने के कारण इस क्षेत्र का महत्व बढ़ जाता है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि उज्जैन में ‍शिप्रा नदी के तट के पास स्थित भैरव पर्वत पर माँ भगवती सती के ओष्ठ गिरे थे।

यहाँ पर नवरा‍त्रि में लगने वाले मेले के अलावा भिन्न-भिन्न मौकों पर उत्सवों और यज्ञों का आयोजन होता रहता है। माँ कालिका के दर्शन के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। धर्मयात्रा की कड़ी में इस बार की यात्रा आपको कैसी लगी, हमें जरूर बताएँ।

कैसे पहुँचें?

वायुमार्ग: उज्जैन से इंदौर एअरपोर्ट लगभग 65 किलोमीटर दूर है।

रेलमार्ग: उज्जैन से मक्सी-भोपाल मार्ग (दिल्ली-नागपुर लाइन), उज्जैन-नागदा-रतलाम मार्ग (मुंबई-दिल्ली लाइन) द्वारा आप आसानी से उज्जैन पहुँच सकते हैं।

सड़क मार्ग: उज्जैन-आगरा-कोटा-जयपुर मार्ग, उज्जैन-बदनावर-रतलाम-चित्तौड़ मार्ग, उज्जैन-मक्सी-शाजापुर-ग्वालियर-दिल्ली मार्ग, उज्जैन-देवास-भोपाल मार्ग आदि देश के किसी भी हिस्से से आप बस या टैक्सी द्वारा यहाँ आसानी से पहुँच सकते हैं।

साभार: अनिरुद्ध जोशी 'शतायु' , वेबदुनिया

Wednesday, September 3, 2014

TANOT MATA - तनोट की आवड़ माता



जैसलमेर से करीब 130 किमी दूर स्थि‍त माता तनोट राय (आवड़ माता) का मंदिर है। तनोट माता को देवी हिंगलाज माता का एक रूप माना जाता है। हिंगलाज माता शक्तिपीठ वर्तमान में पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के लासवेला जिले में स्थित है।

भाटी राजपूत नरेश तणुराव ने तनोट को अपनी राजधानी बनाया था। उन्होंने विक्रम संवत 828 में माता तनोट राय का मंदिर बनाकर मूर्ति को स्थापित किया था। भाटी राजवंशी और जैसलमेर के आसपास के इलाके के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी तनोट माता की अगाध श्रद्धा के साथ उपासना करते रहे। कालांतर में भाटी राजपूतों ने अपनी राजधानी तनोट से हटाकर जैसलमेर ले गए परंतु मंदिर तनोट में ही रहा।

तनोट माता का य‍ह मंदिर यहाँ के स्थानीय निवासियों का एक पूज्यनीय स्थान हमेशा से रहा परंतु 1965 को भारत-पाक युद्ध के दौरान जो चमत्कार देवी ने दिखाए उसके बाद तो भारतीय सैनिकों और सीमा सुरक्षा बल के जवानों की श्रद्धा का विशेष केन्द्र बन गई। 

सितम्बर 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध शुरू हुआ। तनोट पर आक्रमण से पहले श‍त्रु (पाक) पूर्व में किशनगढ़ से 74 किमी दूर बुइली तक पश्चिम में साधेवाला से शाहगढ़ और उत्तर में अछरी टीबा से 6 किमी दूर तक कब्जा कर चुका था। तनोट तीन दिशाओं से घिरा हुआ था। यदि श‍‍त्रु तनोट पर कब्जा कर लेता तो वह रामगढ़ से लेकर शाहगढ़ तक के इलाके पर अपना दावा कर सकता था। अत: तनोट पर अधिकार जमाना दोनों सेनाओं के लिए महत्वपूर्ण बन गया था।






17 से 19 नवंबर 1965 को श‍त्रु ने तीन अलग-अलग दिशाओं से तनोट पर भारी आक्रमण किया। दुश्मन के तोपखाने जबर्दस्त आग उगलते रहे। तनोट की रक्षा के लिए मेजर जय सिंह की कमांड में 13 ग्रेनेडियर की एक कंपनी और सीमा सुरक्षा बल की दो कंपनियाँ दुश्मन की पूरी ब्रिगेड का सामना कर रही थी। शत्रु ने जैसलमेर से तनोट जाने वाले मार्ग को घंटाली देवी के मंदिर के समीप एंटी पर्सनल और एंटी टैंक माइन्स लगाकर सप्लाई चैन को काट दिया था।

दुश्मन ने तनोट माता के मंदिर के आसपास के क्षेत्र में करीब 3 हजार गोले बरसाएँ पंरतु अधिकांश गोले अपना लक्ष्य चूक गए। अकेले मंदिर को निशाना बनाकर करीब 450 गोले दागे गए परंतु चमत्कारी रूप से एक भी गोला अपने निशाने पर नहीं लगा और मंदिर परिसर में गिरे गोलों में से एक भी नहीं फटा और मंदिर को खरोंच तक नहीं आई। 

सैनिकों ने यह मानकर कि माता अपने साथ है, कम संख्या में होने के बावजूद पूरे आत्मविश्वास के साथ दुश्मन के हमलों का करारा जवाब दिया और उसके सैकड़ों सैनिकों को मार गिराया। दुश्मन सेना भागने को मजबूर हो गई। कहते हैं सैनिकों को माता ने स्वप्न में आकर कहा था कि जब तक तुम मेरे मंदिर के परिसर में हो मैं तुम्हारी रक्षा करूँगी। 

सैनिकों की तनोट की इस शानदार विजय को देश के तमाम अखबारों ने अपनी हेडलाइन बनाया।


एक बार फिर 4 दिसम्बर 1971 की रात को पंजाब रेजीमेंट की एक कंपनी और सीसुब की एक कंपनी ने माँ के आशीर्वाद से लोंगेवाला में विश्व की महानतम लड़ाइयों में से एक में पाकिस्तान की पूरी टैंक रेजीमेंट को धूल चटा दी थी। लोंगेवाला को पाकिस्तान टैंकों का कब्रिस्तान बना दिया था।

1965 के युद्ध के बाद सीमा सुरक्षा बल ने यहाँ अपनी चौकी स्थापित कर इस मंदिर की पूजा-अर्चना व व्यवस्था का कार्यभार संभाला तथा वर्तमान में मंदिर का प्रबंधन और संचालन सीसुब की एक ट्रस्ट द्वारा किया जा रहा है। मंदिर में एक छोटा संग्रहालय भी है जहाँ पाकिस्तान सेना द्वारा मंदिर परिसर में गिराए गए वे बम रखे हैं जो नहीं फटे थे।

सीसुब पुराने मंदिर के स्थान पर अब एक भव्य मंदिर निर्माण करा रही है।

लोंगेवाला विजय के बाद माता तनोट राय के परिसर में एक विजय स्तंभ का निर्माण किया, जहाँ हर वर्ष 16 दिसम्बर को महान सैनिकों की याद में उत्सव मनाया जाता है। 


हर वर्ष आश्विन और चै‍त्र नवरात्र में यहाँ विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। अपनी दिनोंदिन बढ़ती प्रसिद्धि के कारण तनोट एक पर्यटन स्थल के रूप में भी प्रसिद्ध होता जा रहा है। 

इतिहास: मंदिर के वर्तमान पुजारी सीसुब में हेड काँस्टेबल कमलेश्वर मिश्रा ने मंदिर के इतिहास के बारे में बताया कि बहुत पहले मामडि़या नाम के एक चारण थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्त करने की लालसा में उन्होंने हिंगलाज शक्तिपीठ की सात बार पैदल यात्रा की। एक बार माता ने स्वप्न में आकर उनकी इच्छा पूछी तो चारण ने कहा कि आप मेरे यहाँ जन्म लें।

माता कि कृपा से चारण के यहाँ 7 पुत्रियों और एक पुत्र ने जन्म लिया। उन्हीं सात पुत्रियों में से एक आवड़ ने विक्रम संवत 808 में चारण के यहाँ जन्म लिया और अपने चमत्कार दिखाना शुरू किया। सातों पुत्रियाँ देवीय चमत्कारों से युक्त थी। उन्होंने हूणों के आक्रमण से माड़ प्रदेश की रक्षा की। 

काँस्टेबल कालिकांत सिन्हा जो तनोट चौकी पर पिछले चार साल से पदस्थ हैं कहते हैं कि माता बहुत शक्तिशाली है और मेरी हर मनोकामना पूर्ण करती है। हमारे सिर पर हमेशा माता की कृपा बनी रहती है। दुश्मन हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सकता है।

माड़ प्रदेश में आवड़ माता की कृपा से भाटी राजपूतों का सुदृढ़ राज्य स्थापित हो गया। राजा तणुराव भाटी ने इस स्थान को अपनी राजधानी बनाया और आवड़ माता को स्वर्ण सिंहासन भेंट किया। विक्रम संवत 828 ईस्वी में आवड़ माता ने अपने भौतिक शरीर के रहते हुए यहाँ अपनी स्थापना की। 

विक्रम संवत 999 में सातों बहनों ने तणुराव के पौत्र सिद्ध देवराज, भक्तों, ब्राह्मणों, चारणों, राजपूतों और माड़ प्रदेश के अन्य लोगों को बुलाकर कहा कि आप सभी लोग सुख शांति से आनंदपूर्वक अपना जीवन बिता रहे हैं अत: हमारे अवतार लेने का उद्देश्य पूर्ण हुआ। इतना कहकर सभी बहनों ने पश्चिम में हिंगलाज माता की ओर देखते हुए अदृश्य हो गईं। पहले माता की पूजा साकल दीपी ब्राह्मण किया करते थे। 1965 से माता की पूजा सीसुब द्वारा नियुक्त पुजारी करता है।

साभार: भीका शर्मा, वेबदुनिया

Saturday, August 23, 2014

DWARKADHEESH MANDIR ,UJJAIN - उज्जैन का द्वारकाधीश गोपाल मंदिर




धर्मयात्रा की इस बार की कड़ी में हम आपको लेकर चलते हैं उज्जैन के प्रसिद्ध द्वारकाधीश गोपाल मंदिर। गोपाल मंदिर उज्जैन नगर का दूसरा सबसे बड़ा मंदिर है। शहर के मध्य व्यस्ततम क्षेत्र में स्थित इस मंदिर की भव्यता आस-पास बेतरतीब तरीके से बने मकान और दुकानों के कारण दब-सी गई है।

 इस मंदिर का निर्माण दौलत राव सिंधिया की धर्मपत्नी वायजा बाई ने संवत 1901 में कराया था जिसमें मूर्ति की स्थापना संवत 1909 में की गई। इस मान से ईस्वी सन 1844 में निर्माण 1852 में मूर्ति की स्थापना हुई। मंदिर के चाँदी के द्वार यहाँ का एक अन्य आकर्षण हैं।

मंदिर में दाखिल होते ही गहन शांति का अहससास होता है। इसके विशाल स्तंभ और सुंदर नक्काशी देखते ही बनती है। मंदिर के आसपास विशाल प्रांगण में सिंहस्त या अन्य पर्व के दौरान बाहर से आने वाले लोग विश्राम करते हैं। पर्वों के दौरान ट्रस्ट की तरफ से श्रद्धालुओं तथा तीर्थ यात्रियों के लिए कई तरह की सुविधाएँ प्रदान की जाती है।

 कम से कम दो सौ वर्ष पूराना है यह मंदिर। मंदिर में भगवान द्वारकाधीश, शंकर, पार्वतीऔर गरुढ़ भगवान की मूर्तियाँ है ये मूर्तियाँ अचल है और एक कोने में वायजा बाई की भी ‍मूर्ति है। यहाँ जन्माष्टमी के अलावा हरिहर का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। हरिहर के समय भगवान महाकाल की सवारी रात बारह बजे आती है तब यहाँ हरिहर मिलन अर्थात विष्णु और शिव का मिलन होता है। जहाँ पर उस वक्त डेढ़ दो घंटे पूजन चलता है।

कैसे पहुँचे:

सड़क मार्ग: मध्यप्रदेश के इंदौर से लगभग 60 किलोमिटर दूर उज्जैन हिंदुओं का विश्व प्रसिद्ध तीर्थ स्थल हैं। इंदौर बस स्टेंड से बस द्वारा उज्जैन पहुँचा जा सकता है।

रेल मार्ग: तीर्थ स्थल उज्जैन का रेलवे स्टेशन देश के सभी प्रमुख रेलवे स्टेशनों से जुड़ा हुआ है। यहाँ से छोटी और बड़ी लाइन की रेलगाड़ियाँ मुंबई, दिल्ली, चेन्नई और कोलकाता के लिए जाती है।

हवाई मार्ग: उज्जैन का सबसे नि‍कटतम हवाई अड्डा इंदौर है।

साभार : - वेबदुनिया/अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

Monday, July 28, 2014

MODHERA SUN TEMPLE - मोढ़ेरा का विश्व प्रसिद्ध सूर्य मंदिर




धर्मयात्रा की इस बार की कड़ी में हम आपको लेकर चलते हैं मोढ़ेरा के विश्व प्रसिद्ध सूर्य मंदिर, जो अहमदाबाद से तकरीबन सौ किलोमीटर की दूरी पर पुष्पावती नदी के तट पर स्थित है। 

माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण सम्राट भीमदेव सोलंकी प्रथम (ईसा पूर्व 1022-1063 में) ने करवाया था। इस आशय की पुष्टि एक शिलालेख करता है जो मंदिर के गर्भगृह की दीवार पर लगा है, जिसमें लिखा गया है- 'विक्रम संवत 1083 अर्थात् (1025-1026 ईसा पूर्व)।'

यह वही समय था जब सोमनाथ और उसके आसपास के क्षेत्रों को विदेशी आक्रांता महमूद गजनी ने अपने कब्जे में कर लिया था। गजनी के आक्रमण के प्रभाव के अधीन होकर सोलंकियों ने अपनी शक्ति और वैभव को गँवा दिया था। 

सोलंकी साम्राज्य की राजधानी कही जाने वाली 'अहिलवाड़ पाटण' भी अपनी महिमा, गौरव और वैभव को गँवाती जा रही थी जिसे बहाल करने के लिए सोलंकी राज परिवार और व्यापारी एकजुट हुए और उन्होंने संयुक्त रूप से भव्य मंदिरों के निर्माण के लिए अपना योगदान देना शुरू किया। 

सोलंकी 'सूर्यवंशी' थे, वे सूर्य को कुलदेवता के रूप में पूजते थे अत: उन्होंने अपने आद्य देवता की आराधना के लिए एक भव्य सूर्य मंदिर बनाने का निश्चय किया और इस प्रकार मोढ़ेरा के सूर्य मंदिर ने आकार लिया। भारत में तीन सूर्य मंदिर हैं जिसमें पहला उड़ीसा का कोणार्क मंदिर, दूसरा जम्मू में स्थित मार्तंड मंदिर और तीसरा गुजरात के मोढ़ेरा का सूर्य मंदिर। 

शिल्पकला का अद्मुत उदाहरण प्रस्तुत करने वाले इस विश्व प्रसिद्ध मंदिर की सबसे बड़ी खासियत यह है कि पूरे मंदिर के निर्माण में जुड़ाई के लिए कहीं भी चूने का उपयोग नहीं किया गया है। ईरानी शैली में निर्मित इस मंदिर को भीमदेव ने दो हिस्सों में बनवाया था। पहला हिस्सा गर्भगृह का और दूसरा सभामंडप का है। मंदिर के गर्भगृह के अंदर की लंबाई 51 फुट और 9 इंच तथा चौड़ाई 25 फुट 8 इंच है।

मंदिर के सभामंडप में कुल 52 स्तंभ हैं। इन स्तंभों पर बेहतरीन कारीगरी से विभिन्न देवी-देवताओं के चित्रों और रामायण तथा महाभारत के प्रसंगों को उकेरा गया है। इन स्तंभों को नीचे की ओर देखने पर वह अष्टकोणाकार और ऊपर की ओर देखने पर वह गोल दृश्यमान होते हैं।

इस मंदिर का निर्माण कुछ इस प्रकार किया गया था कि जिसमें सूर्योदय होने पर सूर्य की पहली किरण मंदिर के गर्भगृह को रोशन करे। सभामंडप के आगे एक विशाल कुंड स्थित है जिसे लोग सूर्यकुंड या रामकुंड के नाम से जानते हैं। 

अलाउद्दीन खिलजी ने अपने आक्रमण के दौरान मंदिर को काफी नुकसान पहुँचाया और मंदिर की मूर्तियों की तोड़-फोड़ की। वर्तमान में भारतीय पुरातत्व विभाग ने इस मंदिर को अपने संरक्षण में ‍ले लिया है। 

पुराणों में भी मोढ़ेरा का उल्लेख: स्कंद पुराण और ब्रह्म पुराण के अनुसार प्राचीन काल में मोढ़ेरा के आसपास का पूरा क्षेत्र 'धर्मरन्य' के नाम से जाना जाता था। पुराणों के अनुसार भगवान श्रीराम ने रावण के संहार के बाद अपने गुरु वशिष्ट को एक ऐसा स्थान बताने के लिए कहा जहाँ पर जाकर वह अपनी आत्मा की शुद्धि और ब्रह्म हत्या के पाप से निजात पा सकें। तब गुरु वशिष्ठ ने श्रीराम को 'धर्मरन्य' जाने की सलाह दी थी। यही क्षेत्र आज मोढ़ेरा के नाम से जाना जाता है।

कैसे पहुँचे?

वायुमार्ग: निकटतम एयरपोर्ट अहमदाबाद है।

रेलमार्ग: निकटतम रेल्वे स्टेशन अहमदाबाद करीब 102 किमी की दूरी पर स्थि‍त है।

सड़क मार्ग: अहमदाबाद से यहाँ जाने के लिए बस एवं टैक्सी की सुविधा उपलब्ध

साभार : भीका शर्मा और जनक झाल, वेबदुनिया

Sunday, June 22, 2014

पांच तत्वों के शिव मंदिर



पांच तत्वों के शिव मंदिर

शिव पुराण की कैलाश संहिता के अनुसार शिव से ईशान उत्पन्न हुए और ईशान से पांच मिथुन की उत्पत्ति हुई। पहला मिथुन आकाश, दूसरा वायु, तीसरा अग्नि, चौथा जल और पांचवां मिथुन पृथ्वी है। इन पांचों का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है। आकाश में एक शब्द ही गुण है, वायु में शब्द और स्पर्श दो गुण है, अग्नि में शब्द, स्पर्श और रूप इन तीन गुणों की प्रधानता है, जल में शब्द, स्पर्श रूप और रस ये चार गुण माने गए हैं और पृथ्वी शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन पांच गुणों से संपन्न है। उपरोक्त पांचों तत्वों से संबंधित शिव मंदिर दक्षिण भारत में स्थित है। एक नजर इन सभी पर:-

आकाश

इससे संबंधित शिव मंदिर का नाम नटराज मंदिर है। यह तमिलनाडु के चिदंबरम शहर में स्थित है। मुख्य मंदिर में दीक्षितकार पुरोहित पूजा करते हैं। मुख्य मूर्ति नृत्य करते हुए शिव की है। उनके बाएं हाथ पर पार्वती की मूर्ति है और दाहिनी ओर एक सोने के छोटे से बॉक्स में स्फटिक के शिवलिंग रखे रहते हैं जिनका बाहर लाकर अभिषेक किया जाता है। गृभगृह में केवल पुजारी प्रवेश करते हैं। यजमान को ऊपर ले जाकर निकट से दर्शन कराते हैं और दक्षिणा लेकर यजमान के नाम से पूजा-अर्चना करते हैं। परिसर में अलग-अलग बहुत मंदिर हैं। प्रांगण बहुत विशाल व मनोहारी है।

पृथ्वी

इस तत्व से संबंधित मंदिर का नाम एकंबरनाथ है और कांचीपुरम (तमिलनाडु) में स्थित है। इसके शिवलिंग बालू के माने गए हैं और उसका जल आदि से अभिषेक नहीं होता है। शिवलिंग का आकार गोल व लगभग ढाई फीट ऊंचा है। यहां केवल तेल का छींटा लगाते है और पूजा-अर्चना करते है। इस मंदिर में एक आम का वृक्ष है जो लगभग 3500 वर्ष पुराना बताया जाता है। इसके तने को काट कर मंदिर में धरोहर के रूप में रखा गया है। इस मंदिर से कुछ दूरी पर पार्वती का मंदिर कामाक्षी देवी के नाम से है। विष्णु का मंदिर भी अलग है जो विष्णु कांची के नाम से प्रसिद्ध है।

अग्नि

इस तत्व से संबंधित शिव मंदिर का नाम अरुणाचलेश्वर है और तिरुवन्नामलाई (तमिलनाडु) में स्थित है। यह बहुत ही विशाल मंदिर है। यहां हर प्रकार की पूजा-अर्चना का समय निश्चित है। शिवलिंग का आकार गोलाई लिए हुए चौकोर है। ऊंचाई लगभग तीन फीट होगी। शिव व पार्वती का श्रृंगार बहुत ही सुंदर, मनोहारी, लुभावना और मन को शांति देने वाला लगता है।

वायु

इस तत्व के मंदिर का नाम काला हस्ती है जो आंध्र प्रदेश के जिला चित्तुर के काला हस्ती में स्थित है। यह मंदिर ऊंचाई वाली पहाड़ी पर बना हुआ है। इस मंदिर में पिंडी की ऊंचाई लगभग चार फुट है और पिंडी पर मकड़ी व हाथी की आकृति प्रतीत होती है। यहां अभिषेक के लिए धोती पहनकर जाना अनिवार्य है। मंदिर का प्रांगण अत्यंत विशाल है और बैरिकेटिंग इस प्रकार की गई है कि व्यक्ति लगभग एक किलोमीटर मंदिर के अंदर ही चलता रहता है। यहां शिवलिंग पर जल नहीं चढ़ता है। अलग शिला रखी है, उसी पर जल चढ़ाया जाता है। इस मंदिर में गाय की विशेष पूजा होती है। मंदिर में एक स्थान ऐसा है जहां से मंदिर के शिखर के दर्शन होते है। कालाहस्ती में रुकने के लिए कई अच्छे होटल हैं। तिरुपति यहां से लगभग 40 किलोमीटर है।

जल

इस तत्व के मन्दिर का नाम जम्बूकेश्वर है जो त्रिची (त्रिचिरापल्ली, तमिलनाडु) में स्थित है। परंतु त्रिची के इस मंदिर को जम्बूकेश्वर के नाम से बहुत ही कम लोग जानते है। यह मंदिर थिरुवन्नाईकावल में स्थित है जो त्रिची से लगभग छह-सात किलोमीटर है। लिहाजा त्रिची में इस मंदिर में जाने के लिए टैक्सी वाले से यह कहना पड़ता है कि हमें थिरुवन्नाईकावल के शिव मंदिर में जाना है। वहीं पर मंदिर के भीतर जम्बूकेश्वर लिखा मिलेगा। यहां तक कि होटल वाले भी जम्बूकेश्वर के नाम से इस मंदिर को नहीं जानते हैं। मंदिर के अंदर पहुंचकर ही तसल्ली होती है कि हम अपने गन्तव्य पर आ गए है। मन्दिर का प्रांगण बहुत बड़ा है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार यह प्रचलित है कि जब कैलाश पर्वत पर शिव ने यह आदेश दिया कि किसी गुप्त स्थान पर मेरी आराधना करो, तब देवी पार्वती ने कावेरी के तट पर जामुन के घने जंगलों में तपस्या की और अपनी दैविक शक्ति से कावेरी के थोड़े से जल को लेकर शिवलिंग बनाया और उसकी पूजा की। अभिषेक कराने के लिए पहले दिन पर्ची कटवानी होती है और लगभग 11.30 बजे अभिषेक होता है जिसके लिए विशेष वेशभूषा में हाथी व नगाड़ों के साथ पुजारी आते है और अभिषेक व आरती होती है। त्रिची में ही श्रीरंगजी का मंदिर व विशाल देवी मंदिर है।

त्रिची में रुकने के लिए काफी होटल है।

कैसे जाएं

पांचों मंदिरों के दर्शन के लिए केंद्रीय स्थान चेन्नई है जहां से आप निम्न क्रम में यात्रा कर सकते हैं-

पहला दिन: चेन्नई पहुंचकर कालाहस्ती के लिए प्रस्थान। 150 किलोमीटर चलकर तीन घंटे में कालाहस्ती। दिन में पूजा व अभिषेक और रात्रि विश्राम।

दूसरा दिन: सुबह पांच बजे कालाहस्ती से प्रस्थान। 180 किलोमीटर चलकर चार घंटे में कांची पहुंचे। ध्यान रहे कि 12 बजे तक मंदिर बंद हो जाते हैं। पहले एकंबर नाथ के दर्शन फिर माता कामाक्षी देवी के दर्शन और फिर विष्णु मंदिर। दोपहर में भोजन करें और दो बजे तक प्रस्थान कर दें। 150 किलोमीटर चलकर तीन घंटे में तिरुवन्नमलाई। वहां से अरुणाचलेश्वर के दर्शन और अभिषेक के बाद रात्रि विश्राम।

तीसरा दिन: प्रस्थान सुबह पांच बजे और 250 किलोमीटर चलकर त्रिचीपल्ली। (त्रिची) पहुंचे वहां जम्बूकेश्वर के दर्शन। त्रिची में यह मंदिर थिरुवन्नाईकावल के शिव मंदिर के नाम से जाना जाता है। इसके बाद श्रीरंगजी का मंदिर और विशाल देवी मंदिर। रात्रि में विश्राम।

चौथा दिन: सुबह चार बजे प्रस्थान। 250 किलोमीटर चलकर पांच घंटे में चिदंबरम पहुंचे। पूजा-अर्चना के बाद प्रस्थान एक बजे और पांडिचेरी होते हुए 200 किलोमीटर का सफर कर रात में चेन्नई पहुंचे।

साभार: योगेन्द्र कुमार, दैनिक जागरण 

Wednesday, June 18, 2014

Hatkoti Temple



चित्र साभार: (http://incrediblehimachal.net)

“Hatkoti Temple” The Historical Temple of Mata Hateshwari (Shakti of God Shiva) in Himachal Pradesh

“Hatkoti Temple” is located at Jubbal (Hatkoti), 100 K.M. from Shimla the capital of the Himachal Pradesh. Temple is located in village Hatkoti of tehsil Jubbal distt Shimla of Himachal Pradesh. .Hatkoti Mata is regarded as the most powerful goddess among all the goddesses of northern India by the residents of Hatkoti. As we know Himachal Pradesh is a state of god and goddesses. Hartkoti is one of them. Himachal Pradesh is known as a valley of temples. There is no written proof about the history of the temple but as we enter the premises of the temple the history diverts our minds towards itself, as there are a number of historic monuments in the temple which makes us remember about the Mabharata period. There are five stone “Deols” present in the temple premises which makes us remember about the five pandavas. These “Deols” are decreasing in size, first one being the largest in size and then the decreasing ones. In the building it’s a beautiful “Lord Shiva” temple having a large and beautiful shrine inside it, others idols present in the temple are also a proof a great architecture skills. The interior walls and roof of the temple have also been designed using great architecturing skills. The people of Hatkoti believe that the temple was established by Guru Adi Shankracharya. Some people also believe that the temple was built somewhere in the Third era. Three Gupta Age’s Rock Edicts (in scripted stones) have been found at three different places of this ancient and historic place.

The fifth kandh of Bhagvat gita describes about Mata Hateshwari as:-

Hateswari is known as the Shakti of Hateshwar and hence this place is known as Hateswari, one of the main residences of Shiva and Shakti.

In front of the temple of Mata Hateshwari towards the east direction is a small mountain known as a fort of Rambhasur. Rambhasur was the father of Maheshasur whom he has got as a reward of his prayers to Agnidev. He also went through a tough prayer of Lord Shiva and was rewarded by lord Shiva that his son would be un defeatable .Taking the advantage of this he captured the “Triloks” of the gods and betrayed them of all their powers. The defeated gods took shelter in the hard to reach places of pabbar valley and asked Mata Hateshwari to protect them from the devil. On the demand of gods Mata Hateshwari killed Maheshasur and gained the name of “Maheshasurmardini” (destroyer of Maheshasur Devil). 

The idol of Mata in the Temple is unexplainable. The artist has tried imagining the whole universe in this idol. The statue is made up of a mixture of eight valuable metals. The statue is 1.20 meter in height. The idol displays the destroyer expression of Mata. The interesting fact about the idol is that it changes its expression, sometimes it has a smiling face and some time it is in a angry posture, the idol has such effect on the devotee that he take off his eyes from the idol. On both sides of the idol there is something written in Brahmi script.

There is a huge vessel type of a thing present near the entrance of the temple known as “charu” surrounded by chains it attracts the attention of people towards it self following one more story of its existence behind it. There is a huge hall in the temple premises known as “yagyashala” used to perform rituals. In the centre of the hall is a Hawan kund where the rituals are performed. The idols of Lord Brahma,Vishnu,Mahesh And Ganesha can be seen placed here There is a lot of sitting place available for the devotees .there is one more hall in the premises known as Satsang Bhawan which can adjust 350 devotees at a time. Nearby is a rest house where the saints and devotees take rest. There is one more hall known as Dharamshala which is mainly used to store various things of the temple. The whole premise of the temple is covered by a 12foot high wall on all the three sides. It has two main doors one towards the east serving as an entrance to the temple.

Hatkoti

Hatkoti in Shimla is an elegant village, which is located on the royal river bank of Pabbar. The Stones and Temples of Hatkoti make the tourist to experience the real cloud nine among the Himalayan culture and green hayfields. All the people visiting the Hatkoti will cherish the temples of the great heritage which date back to the ancient Gupta Dynasty. Being the meeting point of three channels, Hatkoti provides an outstanding feel of ethereal experience, which makes it a substantial place in pilgrims travel route. The grey waters in the mountain channels and the rippling waters of the everlasting river Pabbar provides a solacing and a serene feeling. These Channels offers enormous chances of excursions such as Trout-Fishing and Angling by which fun wishing tourist can spend their time with some enjoyment.

साभार: http://kotkhaijubbal.com/downloads/temples/jubbal-temple/hatkoti-mata/

Tuesday, April 8, 2014

BAHULA SHAKTI PEETH - बहुला शक्तिपीठ




पश्चिम बंगाल के कटवा जंक्शन के निकट बर्धमान में स्थित बहुला शक्तिपीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है। यह पवित्र स्थल मां दुर्गा और भगवान शिव को समर्पित है। यहां की शक्ति बहुला तथा भैरव भीरुक हैं। पश्चिम बंगाल के हावड़ा से यह 145 किलोमीटर दूरी पर स्थित है।

बहुला शक्तिपीठ को भारत के ऐतिहासिक स्थलों में से एक माना जाता है। यहां पर हिंदू भक्तों को देवी शक्ति के रूप में एक अलग ही तरह की ईश्वरीय उर्जा मिलती है। यहां मंदिरों में भक्तजन रोजाना सुबह देवी मां को मिठाई और फल चढ़ाकर पूजा करते हैं।

कथा

पौराणिक कथा के अनुसार ऐसा माना जाता है कि बहुला शक्तिपीठ वह जगह है जहां पर देवी मां की बायीं भुजा गिरी थी। इस मंदिर के निर्माण और उत्थान को लेकर वैसे तो कोई जानकारी नहीं है लेकिन यहां के स्थानीय लोग इसके निर्माण को लेकर अलग-अलग कहानियां रचते हैं।

त्यौहारों में मेले जैसा माहौल

हिंदू त्यौहारों में खासकर महाशिवरात्रि और नवरात्र के समय यहां की रौनक देखते ही बनती है। इस दौरान यहां के बाजारों में मेले जैसा माहौल होता है। नवरात्रि में तो भक्तजन नौ दिन बिना कुछ खाए यहां के मंदिर में मां के दर्शन के लिए चक्कर लगाते हैं।

यहां भी जाएं

अगर आप बधुला शक्तिपीठ जा रहे हैं तो आप टाउन हॉल, डीयर पार्क, क्त्राइस्ट चर्च, दामोदर रिवर, शेर अफगान की क्त्रब, सिख गुरद्वारा, बिजॉय तोरण् जैसे जगहों पर जाना न भूलें। बहुला शक्तिपीठ के नजदीक ही काली और शिवलिंगम मंदिर हैं जो भक्तों के लिए खास आकर्षण है।

कैसे पहुंचें

1. आप देश की किसी भी कोने से बर्धमान रेलवे स्टेशन के लिए ट्रेन पकड़कर बहुला मंदिर पहुंच सकते हैं।

2. अगर आप पश्चिम बंगाल में रहते हैं तो बस के माध्यम से बहुला पहुंच सकते हैं। राज्य में बहुला के लिए डीलक्स बसें चलाई जाती है।

3. यहां का नजदीकी एयरपोर्ट बर्धमान है जबकि यहां का अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट कोलकाता में है।

साभार : दैनिक जागरण