Friday, October 4, 2013

VISHALAKSHI MANDIR KASHI - काशी विशालाक्षी मंदिर


माँ विशालाक्षी देवी ( चित्र साभार: KALIBHAKTI.COM)

काशी विशालाक्षी मंदिर हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध 51 शक्तिपीठों में से एक है। यह मंदिर उत्तर प्रदेश के प्राचीन नगर काशी (वाराणसी) में काशी विश्वनाथ मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि यह यह शक्तिपीठ मां दुर्गा की शक्ति का प्रतीक है। हर साल लाखों श्रद्धालु इस शक्तिपीठ के दर्शन करने के लिए आते हैं। यहां आने वाले हिंदू श्रद्धालु विशालाक्षी को 'मणिकर्णी' के नाम से भी जानते हैं।

पौराणिक कथा

हिन्दुओं की मान्यता के अनुसार यहां देवी सती के दाहिने कान के कुंडल गिरे थे। यहां पर भक्त शुरू से ही देवी मां के रूप में विशालाक्षी तथा भगवान शिव के रूप में काल भैरव की पूजा करते आ रहे हैं। दुर्गा पूजा के समय विशालाक्षी मंदिर में भक्तों की भीड़ देखते ही बनती है। इस दौरान यहां भक्त दिन-रात मां दुर्गा की आराधना करते हैं।

काशी विश्वनाथ मंदिर

हिंदू धर्म में काशी विश्वनाथ का अत्यधिक महत्व है। कहते हैं काशी तीनों लोकों में न्यारी नगरी है, जो भगवान शिव के त्रिशूल पर विराजती है। मान्यता है कि जिस जगह ज्योतिर्लिंग स्थापित है वह जगह लोप नहीं होता और जस का तस बना रहता है। कहा जाता है कि जो श्रद्धालु इस नगरी में आकर भगवान शिव का पूजन और दर्शन करता है उसको समस्त पापों से मुक्ति मिलती है।

काशी विशालाक्षी मंदिर के पास और दूसरे स्मारक भी हैं जिन्हें आप देख सकते हैं जैसे काल भैरव मंदिर, पर्यटक स्थल ओम शांति योग निकेतन, शिव म्यूजिकल हाउस आदि।

कैसे पहुंचें

उत्तर भारत में स्थापित काशी विशालाक्षी मंदिर के दर्शन करने के लिए आपको सबसे पहले वाराणसी शहर में आना होगा। इसके लिए यातायात की अच्छी व्यवस्था की गई है। आप या तो हवाई यात्रा करके वाराणसी पहुंच सकते हैं या फिर रेल और सड़क के जरिए पवित्र काशी नगरी जा सकते हैं।

साभार: दैनिक जागरण 

Wednesday, October 2, 2013

पाकिस्तान के पांच पवित्र मन्दिर

पाकिस्तान में अनेक मन्दिर हैं,जो आज बहुत ही खस्ता हाल में हैं। पाकिस्तान सरकार ने कई बार कहा है कि सनातन धर्म से जुड़े कुछ ऐतिहासिक स्थलों और मन्दिरों को ठीक कराकर पर्यटन की दृष्टि से उन्हें विकसित किया जाएगा। पर अब तक कुछ नहीं हुआ है। इस बार आप पाकिस्तान के पांच बड़े मन्दिरों का महत्व और उनका हाल जानें। 

कटासराज मंदिर 



कटास संस्कृत के कटाक्ष शब्द का अपभ्रंश है जिसका अर्थ होता है आंखें, नेत्र। कहा जाता है कि पार्वती जी के वियोग में शिवजी ने जब रूदन किया था तो उनके रूदन से धरती पर दो कुंड बन गये थे। इनमें से एक कुंड पुष्कर में ब्रह्म सरोवर के रूप में मौजूद है, जबकि दूसरा सरोवर कटासराज मंदिर परिसर में मौजूद है। शिवजी की आंख से निकले आंसू से बने इस पवित्र सरोवर में स्नान करने से मनुष्य के रोग और दोष दूर हो जाते हैं। 1947 में देश विभाजन की मार सबसे अधिक इस मंदिर और सरोवर पर भी पड़ी और न तो मंदिर का रखरखाव किया गया और न ही सरोवर का। पिछले साल तो एक रपट आई थी कि सरोवर का पानी एक सीमेन्ट कारखाना को दिया जा रहा है। जाहिर है पाकिस्तान के लिए इस सरोवर का इससे अधिक और कोई महत्व भी नहीं है। लेकिन खुद कटासराज मंदिर परिसर का यह सरोवर कितना महत्वपूर्ण है वह इसके जल से समझा जा सकता है। अहमद बशीर ताहिर ने अपनी 'डाक्युमेन्ट्री' में इस बात का जिक्र किया है कि यहां सरोवर का पानी दो रंग का है। एक हरा, और दूसरा नीला। जहां सरोवर का पानी हरा है वहां सरोवर की गहराई कम है, लेकिन जहां सरोवर बहुत गहरा है वहां पानी गहरा नीला है। लाख उपेक्षा के बाद भी आज भी इस सरोवर का पानी बहुत स्वच्छ है।

कटासराज मंदिर हिन्दुओं के पवित्रम तीथोंर् में से एक है, क्योंकि ऐसा बताया जाता है कि यहीं इसी स्थान पर शिव और पार्वती का विवाह हुआ था। महाभारत काल में अपने निष्कासन के दौरान पांडवों ने 4 वर्ष कटासराज में ही बिताए थे। इसी कटासराज सरोवर के किनारे यक्ष ने युधिष्ठिर से यक्ष प्रश्न किये थे जो इतिहास में अमर सवाल बनकर दर्ज हो गये। पंजाब की राजधानी लाहौर से 270 किलोमीटर की दूरी पर चकवाल जिले में स्थित कटासराज मंदिर परिसर में स्वयंभू शिवलिंग है जिसके बारे में कहा जाता है कि वे आदिकाल से वहां स्थित है। पांडवों ने इसी शिवलिंग का पूजन किया था और वर्तमान समय में भी यह शिवलिंग उपेक्षित अवस्था में ही सही, अपने स्थान पर अडिग है। शिव मंदिर के अलावा कटासराज में राम मंदिर और अन्य देवी-देवताओं के भी मंदिर हैं जिन्हें सात घरा मंदिर परिसर कहा जाता है। मंदिर परिसर में हरि सिंह नलवा की प्रसिद्घ हवेली भी है।

हिंगलाज माता मंदिर





कटासराज मंदिर परिसर के अलावा पाकिस्तान में अनादिकाल से जो धार्मिक स्थल सबसे अधिक मान्यताप्राप्त है वह वह हिंगलाज माता का मंदिर। भारतीय उपमहाद्वीप में क्षत्रियों की कुलदेवी के रूप में विख्यात हिंगलाज भवानी माता का मंदिर 52 शक्तिपीठों में से एक है। ऐसी मान्यता है कि आदि शक्ति का सिर जहां गिरा वहीं पर हिंगलाज माता का मंदिर स्थापित हो गया। हिंगलाज भवानी माता का मंदिर बलोचिस्तान के ल्यारी जिले के हिंगोल नेशनल पार्क में हिंगोल नदी के किनारे स्थित है। क्वेटा-कराची मार्ग पर मुख्य हाइवे से करीब एक घण्टे की पैदल दूरी पर स्थित हिंगलाज माता का मंदिर पाकिस्तान के प्रमुख शहर कराची से 250 किलोमीटर दूर है।

बंटवारे के बाद से ही यहां आनेवाले दर्शनार्थियों की संख्या भले ही बहुत कम हो गई हो लेकिन यह मंदिर आज भी स्थानीय बलोचवासियों के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है। इस मंदिर के सालाना जलसे या मेले में केवल हिन्दू ही नहीं आते बल्कि मुसलमान भी आते हैं जो श्रद्घा से हिंगलाज माता मंदिर को 'नानी का मंदर' या फिर 'नानी का हज' कहते हैं। नानी शब्द संस्कृत के ज्ञानी का अपभ्रंश है जो कि ईरान की एक देवी अनाहिता का भी दूसरा नाम है।

हिंगलाज माता मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यहां गुरु नानक देव भी दर्शन के लिए आये थे। हिंगलाज माता मंदिर एक विशाल पहाड़ के नीचे पिंडी के रूप में विद्यमान है जहां माता के मंदिर के साथ-साथ शिवजी का त्रिशूल भी रखा गया है। हिंगलाज माता के लिए हर साल मार्च अप्रैल महीने में लगने वाला मेला न केवल हिन्दुओं में, बल्कि स्थानीय मुसलमानों में भी बहुत लोकप्रिय है। ऐसा कहा जाता है कि दुर्गम पहाड़ी और शुष्क नदी के किनारे स्थित माता हिंगलाज का मंदिर दोनों धर्मावलंबियों के लिए अब समान रूप से महत्वपूर्ण हो गया है।

गोरी मंदिर

पाकिस्तान के सिन्ध प्रांत में थारपारकर जिले में स्थित गोरी मंदिर पाकिस्तान स्थित हिन्दुओं का एक और महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। पाकिस्तान में सबसे अधिक हिन्दू इसी थारपारकर जिले में ही रहते हैं जो मूल रूप से वनवासी हैं। इन्हें पाकिस्तान में थारी हिन्दू कहा जाता है। थारपारकर में इन थारी हिन्दुओं की आबादी कुल आबादी के करीब 40 फीसदी है। गोरी मंदिर मुख्य रूप से जैन मंदिर है लेकिन अब इस मंदिर में अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी स्थापित हैं। जैन धर्म के 23वें तीथंर्कर भगवान पार्श्वनाथ की मुख्य मूर्ति अब वहां से हटाकर मुंबई में स्थापित की जा चुकी है जिन्हें गोदीजी पार्श्वनाथ कहते हैं।

मूल रूप से जैन धर्म को समर्पित यह मंदिर अपने स्थापत्य के लिहाज से बेजोड़ है और समझा जाता है इस मंदिर का स्थापत्य और माउंट आबू मंदिर परिसर का स्थापत्य एक ही शैली का है। इस मंदिर का निर्माण मध्यकाल में किया गया था। हालांकि अब पाकिस्तान में जैन धर्म के अनुयायी नाममात्र के बचे हैं लेकिन इस मंदिर परिसर में स्थानीय भील और थारी हिन्दू पूजा-उपासना करते हैं।

मरी सिन्धु मंदिर


मरी इंडस के नाम से मशहूर यह मंदिर परिसर पहली शताब्दी से पांचवीं शताब्दी के बीच बनाया गया है। मरी उस वक्त गांधार प्रदेश का हिस्सा था और चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी मरी का जिक्र यह कहते हुए किया है कि इस पूरे इलाके में हिन्दू और बौद्घ मंदिर खत्म हो रहे हैं। हालांकि पाकिस्तान और दुनिया के आधुनिक इतिहासकार मानते हैं कि मरी के मंदिर सातवीं शताब्दी के बाद के हो सकते हैं क्योंकि इन मंदिरों के स्थापत्य में कश्मीर की स्थापत्य शैली स्पष्ट रूप से दिखाई देती है जो इस क्षेत्र में इस्लामिक आक्रमण के बाद विकसित हुई है। आधुनिक अन्वेषणशास्त्री इन मंदिर समूहों को साल्ट रेन्ज टेम्पल्स भी कहते हैं।

इतिहासकारों का एक वर्ग यह भी कहता है कि ये मंदिर राजपूतों द्वारा बनवाये गये हो सकते हैं जिन्होंने यहां शासन किया था। मरी के मंदिर न सिर्फ अति प्राचीन हैं बल्कि स्थापत्य की अद्भुत मिसाल भी हैं लेकिन पाकिस्तान में अब उपेक्षा का शिकार होकर ये मंदिर लगभग खंडहर में तब्दील हो चुके हैं। 

शारदा पीठ





महादेवी शारदा के बिना कश्मीर का कोई अस्तित्व नहीं था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब कश्मीर तो है लेकिन देवी शारदा का ही कोई अस्तित्व नहीं। सनातन धर्म शास्त्र के अनुसार भगवान शंकर ने सती के शव के साथ जो तांडव किया था उसमें सती का दाहिना हाथ इसी पर्वतराज हिमालय की तराई कश्मीर में गिरा था शारदा गांव में। यहां मंदिर कब अस्तित्व में आया इसका कोई इतिहास नहीं है, लेकिन अब भारतीय नियंत्रण रेखा से महज 17 मील दूर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के इस शारदा गांव में मंदिर के नाम पर सिर्फ यहां भग्नावशेष बचा है।

शारदा पीठ का महत्व इसलिए भी है कि यह 52 शक्तिपीठों में नहीं, बल्कि 18 महाशक्तिपीठ में से एक है। शारदा पीठ में पूजा और पाठ दोनों होता था। यह श्री विद्या साधना का सबसे उन्नत केन्द्र था। शैव संप्रदाय के जनक कहे जानेवाले शंकराचार्य और वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य दोनों ही यहां आये और दोनों ने ही दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल कीं। शंकराचार्य यहीं सर्वज्ञपीठम पर बैठे तो रामानुजाचार्य ने यहीं पर श्रीविद्या का भाष्य प्रवर्तित किया। पंजाबी भाषा की गुरुमुखी लिपि का उद्गम शारदा लिपि से ही होता है। और भी न जाने ऐसे ही कितने अचरज इस मंदिर और विद्याकेन्द्र से जुड़े थे। 

साभार : शैलेन्द्र सिंह, पाञ्चजन्य, http://www.panchjanya.com