Thursday, November 28, 2013

MATA KUNAL PATHRI DHAM - माता कुनाल पत्थरी धाम

जगदम्बे का अद्भुत दर्शन-माता कुनाल पत्थरी धाम


हिमाचल प्रदेश की भूमि के कण- कण में देवी-देवताओं का वास है। इसी कारण यह धरती देव भूमि कहलाती है। यहां के लोग भी शांत व धार्मिक प्रवृत्ति के हैं। प्रकृति से यहां के लोगों की निकटता उनके प्रभु के समीप होने का भी बोध करवाती है। यही कारण है कि यहां के पग पग पर कोई ना कोई आस्था तीर्थ विद्यमान है। सदियों से यह आस्था पुंज हिंदू धर्म की ज्योति को चहूं दिशाओं में फैला रहे हैं। इसी श्रृंखला  में हिमालय की धौलाधार पर्वतमाला का विशेष महत्व है। इस पर्वतमाला के अंचल में हमारे अनेक प्रमुख देवी देवता अनेक रूपों में विराजमान हैं। माता दुर्गा के तो सबसे प्रसिद्घ शक्तिपीठ इस क्षेत्र की विशेष पहचान है। मां चिन्तापूर्णी, मां ज्वाला, श्री वज्रेश्वरी देवी, माता बगुलामुखी, महामाया चामुंडा देवी के अतिरिक्त भगवती के अनेक रूपों में इस क्षेत्र में दर्शन होते हैं। यदि यह कहा जाए कि मातेश्वरी ने अपनी कृपा इस भूमि पर जम कर बरसाई है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

माता अंबे का ही एक रूप इस क्षेत्र में माता कुनाल पत्थरी के नाम से विख्यात है। स्थानीय लोगों में मां कुनाल पत्थरी के प्रति विशेष श्रद्घा है। माता का यह धाम धर्मशाला नगर के समीप विद्यमान है। शहर के हो-हल्ले से दूर भरपूर प्राकृतिक सौंदर्य के मध्य यह देवीपीठ स्थापित है। यंहा  आकर मन को भरपूर शांति की अनुभूति होती है। मुख्य रूप से यह मंदिर माता कपालेश्वरी देवी को समर्पित है। जनश्रुतियों के अनुसार इस धाम का संबंध माता सती की 51 शक्तिपीठों से जोड़ा जाता है। यह माना जाता है कि इस स्थान पर माता सती का कपाल गिरा था। कपाल अर्थात् खोपड़ी का ऊ पर का भाग। इस तथ्य की पुष्टि करता है यंहा  एक शिला पर स्थापित कपाल के आकार का पत्थर का कुंड जो वर्षा के जल से भरा रहता है। मंदिर के गर्भगृह में सतह से लगभग तीन फुट की ऊंचाई पर यह कुंड एक विशाल शिला पर प्राकृतिक अवस्था में  टिका हुआ है। इस शिला की माता कपालेश्वरी की पिंडी के रूप में पूजा होती है। कुंड के ठीक ऊपर गर्भगृह की छत में खुला स्थान रखा गया है जंहा  से वर्षा का जल इस कुंड में टपकता रहता है। वास्तव में यह पत्थर का कुंड एक बड़ी परात जैसा प्रतीत होता है। परात वह बर्तन होता है जो आटा गूंथने के काम आता है। परात को स्थानीय भाषा कांगड़ी में कुनाल कह कर पुकारा जाता है। यही कारण है कि स्थानीय लोग पत्थर की इस परात रूपी आकृति के कारण माता को कुनाल पत्थरी नाम से उच्चारित करते हैं। माता का ऐसा स्वरूप अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता।

माता के इस कुंड का जल विशेष प्रभाव वाला माना जाता है। यह जल कभी सूखता या खराब नहीं होता। न ही इस जल में कोई कीड़ा या जाला उत्पन्न होता है। यह देखने में आया है कि लंबे समय तक वर्षा न होने के उपरांत भी इस कुंड का जल समाप्त नहीं होता। किसी भी प्रकार के रोग विशेष तौर पर पत्थरी इत्यादि के इलाज में इस कुंड के जल को रोगी व्यक्ति को पिलाया जाता है। दूर दूर से लोग इस जल को प्राप्त करने के लिए यहां आते हैं। मंदिर का प्रांगण काफी विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है। यहां राम दरबार के अतिरिक्त भगवान शिव शंकर को समर्पित एक शिवालय भी है। मंदिर में बाहर से आने वाले यात्रियों के लिए धर्मशाला की भी व्यवस्था है। इस पूरे क्षेत्र में विशेष रूप से चाय की पैदावार की जाती है। धर्मशाला नगर से इस मंदिर की दूरी लगभग पांच किलोमीटर है। शहीद स्मारक रोड से इस मंदिर तक आने का मार्ग निकलता है। यह पूरा रास्ता चाय के बागानों के बीच से होकर जाता है। जो यंहा  के सौंदर्य को चार चांद लगा देते हैं। धर्मशाला से पैदल चल कर यंहा  आने का अपना ही आनंद है। पहले इस स्थान पर छोटा सा मंदिर हुआ करता था। अधिकतर ग्वाले यंहा  आया करते थे। परन्तु समय के साथ-साथ माता के नाम की प्रसिद्घि दूर तक फैली। लोग अपनी मनचाही मुरादें माता के आशीर्वाद से पाने लगे। इस प्रकार मंदिर का आकार भी बढ़ता गया। मंदिर के वर्तमान स्वरूप का निर्माण 1965 के आसपास हुआ। जिसमें समय के अनुसार अन्य निर्माण भी जुड़ते चले गए। मंदिर का प्रबन्ध स्थानीय मंदिर कमेटी द्वारा कुशलतापूर्वक चलाया जा रहा है। माता को सकोह, सराह, नगरोटा क्षेत्रों सहित कांगड़ा व धर्मशाला के कई गाँव  में कुलदेवी के रूप में मान्यता प्राप्त है। यंहा  के परिवार अपने हर शुभ कार्य में माता के दरबार में माथा टेकने अवश्य आते हैं। नवरात्रों विशेष रूप से चैत्र मास में यहां मेले का आयोजन होता है। जिसमें दूर-दूर से लोग माता के दर्शन हेतु यंहा  आते हैं। उस समय यंहा  की छटा निराली होती है। सामान्य दिनों में निर्जन व शांत रहने वाला यह क्षेत्र श्रद्घालुओं की चहल पहल व रौनक से गुलजार हो उठता है। पूरे वातावरण में माता कुनाल पत्थरी के जयकारे गूंजने लगते हैं। 

साभार: पाञ्चजन्य, लेखक श्री  अभिनव 

Saturday, November 16, 2013

सिद्धिविनायक मंदिर



पर्यटन और आस्था का प्रतीक सिद्धिविनायक मंदिर

कोई भी शुभ काम शुरू करने से पहले भगवान गणेश की पूजा जरूर की जाती है। इस तरह की स्थिति को हम 'श्रीगणेश' के नाम से भी जानते हैं। मुंबई के प्रभादेवी में स्थित श्री सिद्धिविनायक मंदिर देश में स्थित सबसे पूजनीय मंदिरों में से एक है। यह मंदिर भगवान गणेश को समर्पित है। भक्त जब भी किसी नए काम की शुरुआत करता है तो इस मंदिर के दर्शन जरूर करता है। हर साल यहां लाखों श्रद्धालु और पर्यटक आते हैं और भगवान गणेश की पूजा करते हैं।

पौराणिक कथा

मान्यता है कि जब सृष्टि की रचना करते समय भगवान विष्णु को नींद आ गई, तब भगवान विष्णु के कानों से दो दैत्य मधु व कैटभ बाहर आ गए। ये दोनों दैत्यों बाहर आते ही उत्पात मचाने लगे और देवताओं को परेशान करने लगे। दैत्यों के आंतक से मुक्ति पाने हेतु देवताओं ने श्रीविष्णु की शरण ली। तब विष्णु शयन से जागे और दैत्यों को मारने की कोशिश की लेकिन वह इस कार्य में असफल रहे। तब भगवान विष्णु ने श्री गणेश का आह्वान किया, जिससे गणेश जी प्रसन्न हुए और दैत्यों का संहार हुआ। इस कार्य के उपरांत भगवान विष्णु ने पर्वत के शिखर पर मंदिर का निर्माण किया तथा भगवान गणेश की मूर्ति स्थापित की। तभी से यह स्थल 'सिद्धटेक' नाम से जाना जाता है।

सिद्धिविनायक मंदिर का इतिहास

मुंबई स्थित सिद्धिविनायक मंदिर का निर्माण 19 नवंबर, 1801 को लक्ष्मण विट्ठु और देउबाई पाटिल ने किया था। निर्माण के बाद भी समय-समय पर इस मंदिर को एक नया रूप दिया गया। महाराष्ट्र सरकार ने इस मंदिर के भव्य निर्माण के लिए जमीन प्रदान की जिस पर पांच मंजिला मंदिर का निर्माण किया गया।

सिद्धिविनायक मंदिर



सिद्धिविनायक मंदिर के अंदर एक छोटे मंडपम में भगवान गणेश के सिद्धिविनायक रूप की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की गई है। मंदिर में लकड़ी के दरवाजों पर अष्टविनायक को प्रतिबिंबित किया गया है। जबकि मंदिर के अंदर की छतें सोने के लेप से सुसज्जित की गई हैं। सिद्धिविनायक मंदिर की गिनती अमीर मंदिरों में की जाती है। इस मंदिर से करोड़ों रुपए की आय होती है।

सिद्धिविनायक मंदिर का महत्व

सिद्धिविनायक मंदिर उन गणेश मंदिरों में से एक है, जहां केवल हिन्दू ही नहीं, बल्कि हर धर्म और जाति के लोग दर्शन और पूजा-अर्चना के लिए आते हैं। कहते हैं कि सिद्धि विनायक की महिमा अपरंपार है, वे भक्तों की मनोकामना को तुरंत पूरा करते हैं। मान्यता है कि ऐसे गणपति बहुत ही जल्दी प्रसन्न होते हैं और उतनी ही जल्दी कुपित भी होते हैं।

सिद्धिविनायक मंदिर भगवान गणेश के लोकप्रिय मंदिरों में से एक है। यहां पूरे साल भक्तों की भीड़ उमड़ती है। देश-विदेश से श्रद्धालु और पर्यटक भगवान गणेश के दर्शन के लिए यहां आते हैं। वैसे अगर आप भी सिद्धिविनायक मंदिर जा रहे हैं तो आप महालक्ष्मी मंदिर, चौपाटी और जूहू बीच, गेटवे ऑफ इंडिया, माउंट मेरी चर्च जाना न भूलें। यह सारे लोकप्रिय स्थल सिद्धिविनायक मंदिर से कुछ ही किलोमीटर के अंदर स्थित हैं। ट्रेन और वायु मार्ग से आप आसानी से मुंबई पहुंचकर न केवल सिद्धिविनायक मंदिर के दर्शन कर पाएंगे बल्कि अन्य उपरोक्त पर्यटक स्थल से रूबरू हो पाएंगे।

साभार: दैनिक जागरण 

Friday, October 4, 2013

VISHALAKSHI MANDIR KASHI - काशी विशालाक्षी मंदिर


माँ विशालाक्षी देवी ( चित्र साभार: KALIBHAKTI.COM)

काशी विशालाक्षी मंदिर हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध 51 शक्तिपीठों में से एक है। यह मंदिर उत्तर प्रदेश के प्राचीन नगर काशी (वाराणसी) में काशी विश्वनाथ मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि यह यह शक्तिपीठ मां दुर्गा की शक्ति का प्रतीक है। हर साल लाखों श्रद्धालु इस शक्तिपीठ के दर्शन करने के लिए आते हैं। यहां आने वाले हिंदू श्रद्धालु विशालाक्षी को 'मणिकर्णी' के नाम से भी जानते हैं।

पौराणिक कथा

हिन्दुओं की मान्यता के अनुसार यहां देवी सती के दाहिने कान के कुंडल गिरे थे। यहां पर भक्त शुरू से ही देवी मां के रूप में विशालाक्षी तथा भगवान शिव के रूप में काल भैरव की पूजा करते आ रहे हैं। दुर्गा पूजा के समय विशालाक्षी मंदिर में भक्तों की भीड़ देखते ही बनती है। इस दौरान यहां भक्त दिन-रात मां दुर्गा की आराधना करते हैं।

काशी विश्वनाथ मंदिर

हिंदू धर्म में काशी विश्वनाथ का अत्यधिक महत्व है। कहते हैं काशी तीनों लोकों में न्यारी नगरी है, जो भगवान शिव के त्रिशूल पर विराजती है। मान्यता है कि जिस जगह ज्योतिर्लिंग स्थापित है वह जगह लोप नहीं होता और जस का तस बना रहता है। कहा जाता है कि जो श्रद्धालु इस नगरी में आकर भगवान शिव का पूजन और दर्शन करता है उसको समस्त पापों से मुक्ति मिलती है।

काशी विशालाक्षी मंदिर के पास और दूसरे स्मारक भी हैं जिन्हें आप देख सकते हैं जैसे काल भैरव मंदिर, पर्यटक स्थल ओम शांति योग निकेतन, शिव म्यूजिकल हाउस आदि।

कैसे पहुंचें

उत्तर भारत में स्थापित काशी विशालाक्षी मंदिर के दर्शन करने के लिए आपको सबसे पहले वाराणसी शहर में आना होगा। इसके लिए यातायात की अच्छी व्यवस्था की गई है। आप या तो हवाई यात्रा करके वाराणसी पहुंच सकते हैं या फिर रेल और सड़क के जरिए पवित्र काशी नगरी जा सकते हैं।

साभार: दैनिक जागरण 

Wednesday, October 2, 2013

पाकिस्तान के पांच पवित्र मन्दिर

पाकिस्तान में अनेक मन्दिर हैं,जो आज बहुत ही खस्ता हाल में हैं। पाकिस्तान सरकार ने कई बार कहा है कि सनातन धर्म से जुड़े कुछ ऐतिहासिक स्थलों और मन्दिरों को ठीक कराकर पर्यटन की दृष्टि से उन्हें विकसित किया जाएगा। पर अब तक कुछ नहीं हुआ है। इस बार आप पाकिस्तान के पांच बड़े मन्दिरों का महत्व और उनका हाल जानें। 

कटासराज मंदिर 



कटास संस्कृत के कटाक्ष शब्द का अपभ्रंश है जिसका अर्थ होता है आंखें, नेत्र। कहा जाता है कि पार्वती जी के वियोग में शिवजी ने जब रूदन किया था तो उनके रूदन से धरती पर दो कुंड बन गये थे। इनमें से एक कुंड पुष्कर में ब्रह्म सरोवर के रूप में मौजूद है, जबकि दूसरा सरोवर कटासराज मंदिर परिसर में मौजूद है। शिवजी की आंख से निकले आंसू से बने इस पवित्र सरोवर में स्नान करने से मनुष्य के रोग और दोष दूर हो जाते हैं। 1947 में देश विभाजन की मार सबसे अधिक इस मंदिर और सरोवर पर भी पड़ी और न तो मंदिर का रखरखाव किया गया और न ही सरोवर का। पिछले साल तो एक रपट आई थी कि सरोवर का पानी एक सीमेन्ट कारखाना को दिया जा रहा है। जाहिर है पाकिस्तान के लिए इस सरोवर का इससे अधिक और कोई महत्व भी नहीं है। लेकिन खुद कटासराज मंदिर परिसर का यह सरोवर कितना महत्वपूर्ण है वह इसके जल से समझा जा सकता है। अहमद बशीर ताहिर ने अपनी 'डाक्युमेन्ट्री' में इस बात का जिक्र किया है कि यहां सरोवर का पानी दो रंग का है। एक हरा, और दूसरा नीला। जहां सरोवर का पानी हरा है वहां सरोवर की गहराई कम है, लेकिन जहां सरोवर बहुत गहरा है वहां पानी गहरा नीला है। लाख उपेक्षा के बाद भी आज भी इस सरोवर का पानी बहुत स्वच्छ है।

कटासराज मंदिर हिन्दुओं के पवित्रम तीथोंर् में से एक है, क्योंकि ऐसा बताया जाता है कि यहीं इसी स्थान पर शिव और पार्वती का विवाह हुआ था। महाभारत काल में अपने निष्कासन के दौरान पांडवों ने 4 वर्ष कटासराज में ही बिताए थे। इसी कटासराज सरोवर के किनारे यक्ष ने युधिष्ठिर से यक्ष प्रश्न किये थे जो इतिहास में अमर सवाल बनकर दर्ज हो गये। पंजाब की राजधानी लाहौर से 270 किलोमीटर की दूरी पर चकवाल जिले में स्थित कटासराज मंदिर परिसर में स्वयंभू शिवलिंग है जिसके बारे में कहा जाता है कि वे आदिकाल से वहां स्थित है। पांडवों ने इसी शिवलिंग का पूजन किया था और वर्तमान समय में भी यह शिवलिंग उपेक्षित अवस्था में ही सही, अपने स्थान पर अडिग है। शिव मंदिर के अलावा कटासराज में राम मंदिर और अन्य देवी-देवताओं के भी मंदिर हैं जिन्हें सात घरा मंदिर परिसर कहा जाता है। मंदिर परिसर में हरि सिंह नलवा की प्रसिद्घ हवेली भी है।

हिंगलाज माता मंदिर





कटासराज मंदिर परिसर के अलावा पाकिस्तान में अनादिकाल से जो धार्मिक स्थल सबसे अधिक मान्यताप्राप्त है वह वह हिंगलाज माता का मंदिर। भारतीय उपमहाद्वीप में क्षत्रियों की कुलदेवी के रूप में विख्यात हिंगलाज भवानी माता का मंदिर 52 शक्तिपीठों में से एक है। ऐसी मान्यता है कि आदि शक्ति का सिर जहां गिरा वहीं पर हिंगलाज माता का मंदिर स्थापित हो गया। हिंगलाज भवानी माता का मंदिर बलोचिस्तान के ल्यारी जिले के हिंगोल नेशनल पार्क में हिंगोल नदी के किनारे स्थित है। क्वेटा-कराची मार्ग पर मुख्य हाइवे से करीब एक घण्टे की पैदल दूरी पर स्थित हिंगलाज माता का मंदिर पाकिस्तान के प्रमुख शहर कराची से 250 किलोमीटर दूर है।

बंटवारे के बाद से ही यहां आनेवाले दर्शनार्थियों की संख्या भले ही बहुत कम हो गई हो लेकिन यह मंदिर आज भी स्थानीय बलोचवासियों के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है। इस मंदिर के सालाना जलसे या मेले में केवल हिन्दू ही नहीं आते बल्कि मुसलमान भी आते हैं जो श्रद्घा से हिंगलाज माता मंदिर को 'नानी का मंदर' या फिर 'नानी का हज' कहते हैं। नानी शब्द संस्कृत के ज्ञानी का अपभ्रंश है जो कि ईरान की एक देवी अनाहिता का भी दूसरा नाम है।

हिंगलाज माता मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यहां गुरु नानक देव भी दर्शन के लिए आये थे। हिंगलाज माता मंदिर एक विशाल पहाड़ के नीचे पिंडी के रूप में विद्यमान है जहां माता के मंदिर के साथ-साथ शिवजी का त्रिशूल भी रखा गया है। हिंगलाज माता के लिए हर साल मार्च अप्रैल महीने में लगने वाला मेला न केवल हिन्दुओं में, बल्कि स्थानीय मुसलमानों में भी बहुत लोकप्रिय है। ऐसा कहा जाता है कि दुर्गम पहाड़ी और शुष्क नदी के किनारे स्थित माता हिंगलाज का मंदिर दोनों धर्मावलंबियों के लिए अब समान रूप से महत्वपूर्ण हो गया है।

गोरी मंदिर

पाकिस्तान के सिन्ध प्रांत में थारपारकर जिले में स्थित गोरी मंदिर पाकिस्तान स्थित हिन्दुओं का एक और महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। पाकिस्तान में सबसे अधिक हिन्दू इसी थारपारकर जिले में ही रहते हैं जो मूल रूप से वनवासी हैं। इन्हें पाकिस्तान में थारी हिन्दू कहा जाता है। थारपारकर में इन थारी हिन्दुओं की आबादी कुल आबादी के करीब 40 फीसदी है। गोरी मंदिर मुख्य रूप से जैन मंदिर है लेकिन अब इस मंदिर में अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी स्थापित हैं। जैन धर्म के 23वें तीथंर्कर भगवान पार्श्वनाथ की मुख्य मूर्ति अब वहां से हटाकर मुंबई में स्थापित की जा चुकी है जिन्हें गोदीजी पार्श्वनाथ कहते हैं।

मूल रूप से जैन धर्म को समर्पित यह मंदिर अपने स्थापत्य के लिहाज से बेजोड़ है और समझा जाता है इस मंदिर का स्थापत्य और माउंट आबू मंदिर परिसर का स्थापत्य एक ही शैली का है। इस मंदिर का निर्माण मध्यकाल में किया गया था। हालांकि अब पाकिस्तान में जैन धर्म के अनुयायी नाममात्र के बचे हैं लेकिन इस मंदिर परिसर में स्थानीय भील और थारी हिन्दू पूजा-उपासना करते हैं।

मरी सिन्धु मंदिर


मरी इंडस के नाम से मशहूर यह मंदिर परिसर पहली शताब्दी से पांचवीं शताब्दी के बीच बनाया गया है। मरी उस वक्त गांधार प्रदेश का हिस्सा था और चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी मरी का जिक्र यह कहते हुए किया है कि इस पूरे इलाके में हिन्दू और बौद्घ मंदिर खत्म हो रहे हैं। हालांकि पाकिस्तान और दुनिया के आधुनिक इतिहासकार मानते हैं कि मरी के मंदिर सातवीं शताब्दी के बाद के हो सकते हैं क्योंकि इन मंदिरों के स्थापत्य में कश्मीर की स्थापत्य शैली स्पष्ट रूप से दिखाई देती है जो इस क्षेत्र में इस्लामिक आक्रमण के बाद विकसित हुई है। आधुनिक अन्वेषणशास्त्री इन मंदिर समूहों को साल्ट रेन्ज टेम्पल्स भी कहते हैं।

इतिहासकारों का एक वर्ग यह भी कहता है कि ये मंदिर राजपूतों द्वारा बनवाये गये हो सकते हैं जिन्होंने यहां शासन किया था। मरी के मंदिर न सिर्फ अति प्राचीन हैं बल्कि स्थापत्य की अद्भुत मिसाल भी हैं लेकिन पाकिस्तान में अब उपेक्षा का शिकार होकर ये मंदिर लगभग खंडहर में तब्दील हो चुके हैं। 

शारदा पीठ





महादेवी शारदा के बिना कश्मीर का कोई अस्तित्व नहीं था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब कश्मीर तो है लेकिन देवी शारदा का ही कोई अस्तित्व नहीं। सनातन धर्म शास्त्र के अनुसार भगवान शंकर ने सती के शव के साथ जो तांडव किया था उसमें सती का दाहिना हाथ इसी पर्वतराज हिमालय की तराई कश्मीर में गिरा था शारदा गांव में। यहां मंदिर कब अस्तित्व में आया इसका कोई इतिहास नहीं है, लेकिन अब भारतीय नियंत्रण रेखा से महज 17 मील दूर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के इस शारदा गांव में मंदिर के नाम पर सिर्फ यहां भग्नावशेष बचा है।

शारदा पीठ का महत्व इसलिए भी है कि यह 52 शक्तिपीठों में नहीं, बल्कि 18 महाशक्तिपीठ में से एक है। शारदा पीठ में पूजा और पाठ दोनों होता था। यह श्री विद्या साधना का सबसे उन्नत केन्द्र था। शैव संप्रदाय के जनक कहे जानेवाले शंकराचार्य और वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य दोनों ही यहां आये और दोनों ने ही दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल कीं। शंकराचार्य यहीं सर्वज्ञपीठम पर बैठे तो रामानुजाचार्य ने यहीं पर श्रीविद्या का भाष्य प्रवर्तित किया। पंजाबी भाषा की गुरुमुखी लिपि का उद्गम शारदा लिपि से ही होता है। और भी न जाने ऐसे ही कितने अचरज इस मंदिर और विद्याकेन्द्र से जुड़े थे। 

साभार : शैलेन्द्र सिंह, पाञ्चजन्य, http://www.panchjanya.com

Wednesday, September 25, 2013

YAMRAJ TEMPLE - यमराज जी का मंदिर

मंदिर, जहां मरने के बाद सबसे पहले पहुंचती है आत्मा

यमराज जी का मंदिर - भरमौर 
एक मंदिर ऐसा है जहां मरने के बाद हर किसी को जाना ही पड़ता है चाहे वह आस्तिक हो या नास्तिक। यह मंदिर किसी और दुनिया में नहीं बल्कि भारत की जमीन पर स्थित है। देश की राजधानी दिल्ली से करीब 500 किलोमीटर की दूरी पर हिमाचल के चम्बा जिले में भरमौर नामक स्थान में स्थित इस मंदिर के बारे में कुछ बड़ी अनोखी मान्यताएं प्रचलित हैं।

यहां पर एक ऐसा मंदिर है जो घर की तरह दिखाई देता है। इस मंदिर के पास पहुंच कर भी बहुत से लोग मंदिर में प्रवेश करने का साहस नहीं जुटा पाते हैं। बहुत से लोग मंदिर को बाहर से प्रणाम करके चले आते हैं। इसका कारण यह है कि, इस मंदिर में धर्मराज यानी यमराज रहते हैं। संसार में यह इकलौता मंदिर है जो धर्मराज को समर्पित है।

इस मंदिर में एक खाली कमरा है जिसे चित्रगुप्त का कमरा माना जाता है। चित्रगुप्त यमराज के सचिव हैं जो जीवात्मा के कर्मो का लेखा-जोखा रखते हैं। मान्यता है कि जब किसी प्राणी की मृत्यु होती है तब यमराज के दूत उस व्यक्ति की आत्मा को पकड़कर सबसे पहले इस मंदिर में चित्रगुप्त के सामने प्रस्तुत करते हैं। चित्रगुप्त जीवात्मा को उनके कर्मो का पूरा ब्योरा देते हैं इसके बाद चित्रगुप्त के सामने के कक्ष में आत्मा को ले जाया जाता है। इस कमरे को यमराज की कचहरी कहा जाता है।

कहा जाता है कि यहां पर यमराज कर्मों के अनुसार आत्मा को अपना फैसला सुनाते हैं। यह भी मान्यता है इस मंदिर में चार अदृश्य द्वार हैं जो स्वर्ण, रजत, तांबा और लोहे के बने हैं। यमराज का फैसला आने के बाद यमदूत आत्मा को कर्मों के अनुसार इन्हीं द्वारों से स्वर्ग या नर्क में ले जाते हैं। गरूड़ पुराण में भी यमराज के दरबार में चार दिशाओं में चार द्वार का उल्लेख किया गया है।

साभार: राकेश, अमर उजाला 

Saturday, August 31, 2013

जैन सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र का मंदिर




धर्मयात्रा की इस बार की कड़ी में हम आपको लेकर चलते हैं नेमावर के जैन सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र में जहाँ भव्य मंदिर खड़ा है नर्मदा के तट पर। इस क्षेत्र का महत्व इसलिए है, क्योंकि यह स्थान प्राचीन काल में जैन संन्यासियों की तपोभूमि हुआ करता था तथा यहाँ कई भव्य मंदिर हुआ करते थे।

रावण के सुत आदि कुमार, मुक्ति गए रेवातट सार।
कोटि पंच अरू लाख पचास, ते बंदों धरि परम हुलास।।

उक्त निर्वाण कांड के श्लोक के अनुसार रावण के पुत्र सहित साढ़े पाँच करोड़ मुनिराज नेमावर के रेवातट से मोक्ष पधारे हैं। रेवा नदी जो कि नर्मदा के नाम से भी जानी जाती है। जैन शास्त्र के अनुसार नेमावर नगरी पर प्रचीन काल में कालसंवर और उनकी रानी कनकमला राज्य करते थे। आगे जाकर यह निमावती और बाद में नेमावर हुआ।

नेमावर नदी के तल से विक्रम संवत 1880 ई.पू. की तीन विशाल जैन प्रतिमाएँ निकली है। पहली 1008 भगवान आदिनाथ की मूर्ति जिन्हें नेमावर जिनालय में, दूसरी 1008 भगवान मुनिसुव्रतनाथ की मूर्ति, जिन्हें खातेगाँव के जिनालय में और 1008 भगवान शांतिनाथ की पद्‍मासनस्त मूर्ति, जिन्हें हरदा में रखा गया है। इसी कारण इस सिद्धक्षेत्र का महत्व और बढ़ गया है।

जैन-तीर्थ संग्रह में मदनकीर्ति ने लिखा है कि 26 जिन तीर्थों का उल्लेख है उनमें रेवा (नर्मदा) के तीर्थ क्षेत्र का महत्व अधिक है उनका कथन है कि रेवा के जल में शांति जिनेश्वर हैं जिनकी पूजा जल देव करते हैं। इसी कारण इस सिद्ध क्षेत्र को महान तीर्थ माना जाता है।

उक्त सिद्ध क्षेत्र पर भव्य निर्माण कार्य प्रगति पर है। यहाँ पर निर्माणाधीन है पंचबालवति एवं त्रिकाल चौबीस जिनालय। लगभग डेढ़ अरब की लागत से उक्त तीर्थ स्थल के निर्माण कार्य की योजना है। लगभग 60 प्रतिशत निर्मित हो चुके यहाँ के मंदिरों की भव्यता देखते ही बनती है।

श्रीदिगंबर जैन रेवातट सिद्धोदय ट्रस्ट नेमावर, सिद्धक्षेत्र द्वारा उक्त निर्माण किया जा रहा है। ट्रस्ट के पास 15 एकड़ जमीन हो गई है जिसमें विश्व के अनूठे 'पंचबालयति त्रिकाल चौबीसी' जिनालय का निर्माण अहमदाबाद के शिल्पज्ञ सत्यप्रकाशजी एवं सी.बी. सोमपुरा के निर्देशन में हो हो रहा है। संपूर्ण मंदिर वं‍शी पहाड़पुर के लाल पत्थर से निर्मित हो रहा है।

पूर्ण मंदिर की लम्बाई 410 फिट, चौड़ाई 325 फिट एवं शिखर की ऊँचाई 121 फिट प्रस्तावित है। जिसमें पंचबालयति जिनालय 55 गुणित 55 लम्बा-चौड़ा है। सभा मंडप 64 गुणित 65 लम्बा-चौड़ा एवं 75 फिट ऊँचा बनना है।

खातेगाँव, नेमावर और हरदा के जैन श्रद्वालुओं के अनुरोध पर श्री 108 विद्यासागरजी महाराज के इस क्षेत्र में आगमन के बाद से ही इस तीर्थ क्षेत्र के विकास कार्य को प्रगति और दिशा मिली। श्रीजी के सानिध्य में ही उक्त क्षेत्र पर निर्माण कार्य का शिलान्यास किया गया।

इंदौर से मात्र 130 कि.मी. दूर दक्षिण-पूर्व में हरदा रेलवे स्टेशन से 22 कि.मी. तथा उत्तर दिशा में खातेगाँव से 15 कि.मी. दूर पूर्व दिक्षा में स्थित है यह मंदिर। यहाँ नर्मदा नदी के जल स्तर की चौड़ाई करीब 700 मीटर है।

कैसे पहुँचे :-

वायु मार्ग : यहाँ से सबसे नजदीकी हवाई अड्डा देवी अहिल्या एयरपोर्ट, इंदौर 130 किमी की दूरी पर स्थित है।

रेल मार्ग : इंदौर से मात्र 130 किमी दूर दक्षिण-पूर्व में हरदा रेलवे स्टेशन से 22 किमी तथा उत्तर दिशा मेंभोपाल से 170 किमी दूर पूर्व दिशा में स्थित है नेमावर।

सड़क मार्ग : नेमावर पहुँचने के लिए इंदौर से बस या टैक्सी द्वारा भी जाया जा सकता है।

साभार:  अनिरुद्ध जोशी 'शतायु' ,वेब दुनिया

Sunday, August 25, 2013

Sri Mailar Mallanna





Sri Shiva Mailar Mallanna ( ಶ್ರೀ ಶಿವ ಮೈಲಾರ್ ಮಲ್ಲಣ್ಣ ) is also known as Khanderao, Khanderaya, MalhariMartand,Malanna, Mailara Linga, and Mallu Khan is worshipped as Mārtanda Bhairava,a form of Shiva is the main deity worshiped by Kurubas, Uppaaras and other Hindus., mainly in the Deccan plateau of India, especially in the states of Karnataka, Maharashtra and Andhra pradesh. The main priest of this temple is belong to Kurubas community.

Sri Shiva Mailar Mallanna Temple is in Mailar or Khanapur village and which is situated at 15 km from Bidar on Bidar-Udgir Road.

Sri Shiva mailar Mallanna and Mhalsakilling demons Mani-Malla 

The legend tell of the demon Mallasur(Malla) (in Kannada aur means demons) and his younger brother Manikasur(Mani), who had gained the boon of invincibility from Brahma, creating chaos on the earth and harassing the sages. When the seven sages approached Shiva forprotection after Indra and Vishnu confessed their incapability, Shiva assumed the form (Avatar) of Martanda Bhairava, as theMahatmya calls Mallanna (Khandoba), riding the Nandi bull, leading an army of the gods.

Martanda Bhairava is described as shining like the gold and sun, covered in turmeric, three-eyed, with a crescent moon on his forehead.The demon army was slaughtered by the gods and finally Khandoba killed Malla and Mani. While dying, Malla offers his white horse to Khandoba as an act of repentance and asks for a boon. The boon is that he be present in every shrine Of Khanbobs and thus this temple is called Sri Shiva Mailari Mallanna (Khandoba) Temple.

The temple is very famous in the north karnataka and every year temple attract millions of devotees from Karnataka, Maharashtra and Andhra pradesh.

Sunday is believed to be the main worship day and the same day near temple, Goat, Sheep, Cow and other animal trading also takes place.

साभार: विकिपीडिया 

Wednesday, August 21, 2013

हिमालय के चार धाम तीर्थाटन ही नहीं, पर्यटन भी




प्राचीन काल से ही भारत के चार धामों का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व है। हिन्दू समाज भारत केचारों कोनों पर स्थित चार धामों (पूर्व में जगन्नाथपुरी, पश्चिम में द्वारका, उत्तर में बद्रीनाथ औरदक्षिण में रामेश्वरम्) के दर्शन को अपना सौभाग्य मानता है। पर पिछले कुछ दशकों में हिमालय में हीस्थित चार प्रमुख तीर्थस्थलों को चार धाम की मान्यता देकर उसकी यात्रा का प्रचलन तेजी से बढ़ा है।हिमालय क्षेत्र में स्थित उत्तराखण्ड राज्य और उसके भी गढ़वाल मण्डल में स्थित बद्रीनाथ, केदारनाथ,गंगोत्री और यमुनोत्री की यात्रा 'चार धाम यात्रा' के रूप में प्रचलित हो रही है। शीतकाल में इन स्थानों परस्थित इन प्राचीन मंदिरों के कपाट बंद हो जाते हैं और ग्रीष्मकाल में विधि-विधान पूर्वक इन मंदिरों केकपाट खोले जाते हैं और यात्रा शुरू होती है। इस वर्ष गंगोत्री व यमुनोत्री मंदिर के कपाट 13 मई (अक्षयतृतीया के दिन), श्री केदारनाथ के 14 मई एवं श्री बद्रीनाथ के कपाट 16 मई को खुल रहे हैं। यहां प्रस्तुत हैइन मंदिरों के ऐतिहासिकता, प्राचीनता और उनके दर्शन का महत्व-


चार धामों में से एक। भगवान विष्णु के बद्रीनाथ रूप को समर्पित। वर्तमान मंदिर का निर्माण आदिशंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में कराया। समुद्र तल से 3,133 मीटर की ऊंचाई पर स्थित। अलकनंदानदी के तट के दोनों ओर नर और नारायण पर्वत श्रृंखला के बीच स्थित। 27 किमी. दूर स्थित बद्रीनाथशिखर की ऊंचाई 7138 मीटर। वहां स्थित मंदिर में भगवान विष्णु की बेदी है, जो 2,000 वर्ष से अधिकप्राचीन है। अन्य दर्शनीय स्थल- तप्त कुण्ड, ब्रह्म कपाल, शेषनेत्र, चरण पादुका, नीलकण्ठ पर्वत।


द्वादश ज्योर्तिलिंगों में से एक। वर्तमान मंदिर का निर्माण पाण्डव वंशी जनमेजय द्वारा कराया गयामाना जाता है। आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में जीर्णोद्धार करवाया। केदार पर्वत श्रृंखला के बीचस्थित। मंदाकिनी नदी के समीप, 3562 मीटर की ऊंचाई। माना जाता है कि केदारनाथ के दर्शन किएबिना बद्रीनाथ के दर्शन का भी फल नहीं मिलता है। अन्य दर्शनीय स्थल- गांधी सरोवर, वासुकी ताल,ब्रह्मकुण्ड, हंसकुण्ड, भैरवनाथ, बुराडी ताल

गोमुख से निकली गंगा जी या भागीरथी के दर्शन हेतु सड़क मार्ग का अंतिम स्थान। वर्तमान गंगा मंदिर18वीं शताब्दी में निर्मित हुआ। समुद्र तल से 3,140 मीटर की ऊंचाई पर स्थित। भगवान श्रीरामचन्द्र जीके पूर्वज चक्रवर्ती राजा भगीरथ ने यहीं एक शिला पर बैठकर भगवान शंकर की आराधना की थी।महाभारत युद्ध के पश्चात पाण्डवों ने यहीं आकर अपने परिजनों की आत्मा की शांति के लिए देवयज्ञकिया था। 20 फीट ऊंचे सफेद संगमरमर के पत्थरों से निर्मित है यह मंदिर। यहां से गोमुख 19 किमी.दूरी पर, 3892 मीटर की ऊंचाई पर है। भैरों घाटी अत्यन्त रमणीय है।

देवी यमुना को समर्पित यह स्थल समुद्र तल से 3235 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह असित मुनी कानिवास स्थान था। तीर्थस्थल से मात्र 1 किमी. दूरी पर कालिंदी पर्वत के बीच 4421 मी. की ऊंचाई परयमुना नदी का उद्गम स्थल है। हनुमान चट्टी पर उतरकर 14 किमी. की पैदल यात्रा करके यमुनोत्रीपहुंचा जा सकता है। प्राकृतिक आपदाओं के कारण अनेक बार ध्वस्त व पुनर्निमित हुए इस मंदिर कावर्तमान स्वरूप 19वीं शदी में जयपुर की महारानी गुलेरिया द्वारा बनबाया गया माना जाता है।

वैसे तो सम्पूर्ण हिमालय एक तीर्थ क्षेत्र है। इसकी प्रत्येक घाटी तथा छोटी-बड़ी नदियों के तट पर तीर्थ स्थित हैं। किन्तु बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री तथा यमुनोत्री प्रमुख प्रचलित तीर्थस्थल हैं, जिनकी दुनिया भर में मान्यता है। यहां ऐसे अनेक ज्ञात-अज्ञात आस्था केन्द्र हैं जो सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्व रखते हैं। पंचप्रयाग, पंचबद्री, पंचकेदार, नन्दादेवी, बैजनाथ, मायावती, ताड़केश्वर, कण्वाश्रम, कालीकुमाऊं, हनौल, आदिबद्री, पलेठी का सूर्य मन्दिर, बूढ़ाकेदार आदि-आदि। हिमालय में अधिक संख्या में शिवलिंग या शिवालय स्थापित हैं, इसी कारण केदारखण्ड को शिवक्षेत्र भी कहा गया है।

बद्रीनाथ

देश के चारों कोनों पर स्थित चार धामों में से एक है - बद्रीनाथ। इसका सम्बन्ध सतयुग से है, जबकि अन्य धामों का त्रेता, द्वापर तथा कलियुग से। श्री बद्रीनाथ के हर युग में नाम भी अलग-अलग हैं। सतयुग में इसे मुक्तिप्रदा, त्रेता मंे योगसिद्धिदा, द्वापर में विशाला तथा कलियुग में बद्रिकाश्रम के रूप में जाना जाता है। स्कन्धपुराण में इससे सम्बन्धित श्लोक मिलता है-

कृते मुक्तिप्रदा प्रोक्ता,
त्रेतायाम् योगसिद्धिदा।
विशाला द्वापरे प्रोक्ता,
कलौ बद्रिकाश्रमम्।।

मान्यता है कि इस धाम का महत्व तप के कारण से है। भगवान नारायण ने सृष्टि की रचना के पश्चात् जगत को कर्म मार्ग पर अग्रसर करने की भावना से स्वयं यहां तप के पश्चात् विष्णु वाहन होने की पदवी प्राप्त की थी। नारद को काम जीतने की शक्ति यहीं प्राप्त हुई। राम, कृष्ण आदि अवतारी पुरूषों द्वारा भी तप हेतु यहां आने के प्रमाण मिलते हैं। इसी मार्ग पर पाण्डवों का स्वर्गारोहण सर्वविदित है।

केदारनाथ

मन्दाकिनी के पावन तट पर स्थित है, केदारनाथ। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में 'हिमालये तु केदारम्' ऐसा उल्लेख है। यहां भगवान आशुतोष शिवशंकर सदा वास करते हैं। मन्दिर के गर्भगृह में भगवान शंकर ज्योतिर्लिंग स्वरूप शिला के रूप में स्थित हैं। इसके अग्रभाग में जगत्जननी पार्वती की सुशोभित प्रतिमा सहित अनेक मूर्तियां हैं तथा समीपवर्ती क्षेत्र में हंसकुण्ड, भैरवनाथ तथा नवदुर्गा आदि। यहीं कुछ दूरी पर बुराड़ी ताल, वासुकी ताल, भृगुपन्त्य तथा ब्रह्मकुण्ड आदि स्थित हैं, जो आध्यात्म तथा पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। वासुकी ताल में दुर्लभ पुष्प ब्रह्मकमल पाया जाता है। ये सभी स्थान केदारनाथ से 8 से 10 किलोमीटर की परिधि में हैं। मन्दिर के पार्श्व भाग में आद्यशंकराचार्य की समाधि है। इसे दण्डस्थल भी कहते हैं, जो सनातन धर्म की जीवन्तता का प्रतीक है।

कपाट खुलने का महत्व

कपाट खुलने के दिन का मुख्य आकर्षण उस दीपज्योति का दर्शन होता है, जो शीतकाल के लगभग छ: महीने पूजागृह में ज्योति अनवरत जलती रहती है। बद्रीनाथ तथा केदारनाथ मन्दिर के कपाट (द्वार) खुलने का लोकमान्य विधान आदिकाल से चला आ रहा है। यह मान्यता बनी हुई है कि कपाल बन्द होने पर छ: महीने देवपूजा तथा छ: माह मानव पूजा के लिये मन्दिर के द्वार खुले रहते हैं। वृहद् नारदपुराण में इसका उल्लेख है -

लभन्ते दर्शनं पुण्यं, पापकर्म विवर्जिता
ण्मासे देवते: पूज्या, षण्मासे मानवे।़तथा

लम्बे कालखण्ड तक इस क्षेत्र के चारों तीर्थों-बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री एवं यमुनोत्री के मन्दिरों की व्यवस्था संरक्षक के रूप में टिहरी नरेश देखते रहे हैं। बसन्त पंचमी के अवसर पर टिहरी दरबार (नरेन्द्र नगर) में रावल (मुख्य पुजारी) की जन्म कुण्डली को ध्यान में रखकर दिशाप्रस्थान तथा कपाट खुलने का मुहूर्त देखा जाता है। गंगोत्री व यमुनोत्री के कपाट सामान्य रूप से अक्षय तृतीया को ही खुलते हैं। कपाट खुलते समय टिहरी नरेश द्वारा रावल का तिलक किया जाता है, इसे तिलपात्र अभिषेक कहा जाता है। मन्दिर में जलने वाले ज्योति स्तम्भ निमित्त तेल की पिराई भी समारोहपूर्वक टिहरी नरेश के यहां से ही की जाती है।

ऐतिहासक यात्रा

पौराणिक काल में तीर्थाटन के लिये पैदल यात्रा की परम्परा थी। आद्यशंकराचार्य, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ सदृश अनेक सन्त इन्हीं दुर्गम मार्गों से पैदल चलकर हिमालय आये। यातायात साधनों के प्रचलन से पैदल यात्रा की यह विधा धीरे-धीरे लुप्त होती गई। पैदल यात्रा को आधार मानकर ही वर्तमान परिवहन मार्गों का निर्माण हुआ है। पहले इस सम्पूर्ण मार्ग में चट्टी व्यवस्थाएं थीं। हरिद्वार से जहां एक ओर देवप्रयाग होकर केदारनाथ व बद्रीनाथ तक चट्टियों की श्रृंखला थी, वहीं दूसरी ओर हरिद्वार, देहरादून, मसूरी होकर धरासू तथा यमुनोत्री, गंगोत्री तक फैले पड़ाव स्थलों यात्रियों को पैदल मार्ग पर सब प्रकार की सुविधाएं प्रदान करते थे। बद्रीनाथ से कर्णप्रयाग लौटकर वहां से रामनगर की ओर मार्ग जाता था, इसमें आदिबद्री, भिकियासैंण, कोट आदि प्रमुख चटिटयां थीं। इस प्रकार सैकड़ों चटिटयां सम्पूर्ण पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को पर्यटन उद्योग से भी जोड़ती थीं। तीर्थयात्रा का पारम्परिक क्रम यमुनोत्री से प्रारम्भ होकर गंगोत्री, केदारनाथ तथा अन्त में बद्रीनाथ है। यमुनोत्री तथा केदारनाथ के मोटर मार्ग से दूर होने के कारण अभी भी पैदल यात्रा ही करनी होती है। इससे यात्रा का वास्तविक आनन्द प्राप्त होता है तथा यहां के नैसर्गिक सौन्दर्य को निकट से देखने व अनुभव करने का अवसर भी प्राप्त होता है।

गत वर्ष 10 लाख देशी-विदेशी पर्यटक यहां आये। देहरादून सहित यात्रा मार्गों पर 50 से अधिक विश्रामगृह बद्री-केदार मंदिर समिति द्वारा स्थापित किये गये हैं। मन्दिर समिति को प्राप्त धन का उपयोग जनसेवा के उपक्रमों में भी किया जाता है, जिनमें संस्कृत विद्यालयों का सहयोग, हिन्दी-भाषी शिक्षण संस्थानों की सहायता, नि:शुल्क भोजनालय आदि प्रमुख हैं। केदारनाथ में मन्दिर समिति का एक औषधालय भी है।

बद्रीनाथ से आने वाली अलकनन्दा तथा गंगोत्री से आ रही भागीरथी दोनों का संगम स्थल है - देवप्रयाग।यहीं इस संयुक्त धारा को गंगा नाम मिला है। पंचप्रयागों का प्रवेश द्वार, यह एक प्रमुख संगमतीर्थ है तथा मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम के भव्य 2100 वर्ष पुराने मन्दिर से यह नगरी सुशोभित है। बद्रीनाथ के तीर्थपुरोहितों का यह पैतृक स्थान भी है।

सिर्फ पर्यटन नहीं

वर्तमान में पर्यटन के बढ़ते आयाम के साथ तीर्थाटन की आत्मा भी जीवन्त बनी रहे, इसकी सजगता चाहिये। पर्यटन के साथ पनप रहा पाश्चात्य अन्धानुकरण हिमालय के वातावरण के लिये घातक सिद्ध होगा। प्रदूषण के कारण बिगड़ते पर्यावरण तथा मानव के विपरीत व्यवहार के कारण हिमखण्ड (ग्लेशियर) सिमटते जा रहे हैं, गंगा समेत अनेक नदियों का जल कम हो रहा है। बाँध परियोजनाओं ने भी जल की अविरलता तथा निर्मलता को प्रभावित किया है। विकास के नाम पर विकार न आये, इसका ध्यान रखना भी आवश्यक है। यहां के स्थानीय उत्पादनों का लोप होकर विदेशी पदार्थों का प्रवेश भी एक अच्छा लक्षण नहीं है।

सम्पूर्ण हिमालय तीर्थक्षेत्र है। यहां शताब्दियों से व्यक्ति आध्यात्मिक पिपासा को शान्त करने तथा तीर्थाटन के उद्देश्य से आता है। दक्षिण के कालड़ी से चलकर आद्य शंकराचार्य यहां आये, स्वामी विवेकानन्द ने यहां प्रवास किया, स्वामी रामतीर्थ की तो यह कर्मस्थली ही रही, वे बार-बार यहां आये। यही भिलंगना में उन्होंने जलसमाधि ली। यहां के तीर्थ, यहां का नैसर्गिक सौन्दर्य, स्वच्छ वातावरण इस देवभूमि की अमूल्य सम्पदा है।

(वर्तमान में प्राकृतिक आपदा व केदारनाथ में भयंकर जल  सुनामी के कारण से यात्रा बंद है. इसमें बहुत बड़ी जनहानि हुई है, आइये हम उन मृत आत्माओं को श्रद्धांजली अर्पित करे. ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शांति। )

लेख साभार: पाञ्चजन्य 

Wednesday, July 17, 2013

BODDH GAYA - बोध गया जहां सिद्धार्थ को ज्ञान की प्राप्ति हुई

भगवान् गौतम बुद्ध (चित्र साभार : great-buddha-statue.com)


महाबोधि मंदिर (चित्र साभार : Archaeological Survey of India)

महाबोधि मंदिर (चित्र साभार: विकिपीडिया)

अभी पिछले ही दिनों जिहादियों ने बोध गया के विश्व प्रसिद्ध महाबोधि मन्दिर को बम से उड़ाने का असफल प्रयास किया। स्वाभाविक रूप से लोगों के मन में उस मन्दिर को जानने की उत्सुकता रही। बोध गया बिहार की राजधानी पटना से दक्षिण लगभग 100 किलो मीटर की दूरी पर धार्मिक नगरी गया के पास स्थित है। कहते हैं बोधगया में बोधि पेड़ के नीचे तपस्यारत महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। इस कारण बोधगया दुनियाभर के बौद्धों के लिए सबसे बड़ा धार्मिक स्थल है। 2002 ईसवीं में यूनेस्को ने इस धार्मिक नगरी को 'विश्व विरासत स्थल' घोषित किया था। कई प्राचीन ग्रंथों में वर्णन मिलता है कि ईसा से 500 वर्ष पहले कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ ज्ञान की खोज में फल्गु नदी के तट पर उरुवेला नामक गांव में पहुंचे और यहां एक पीपल पेड़ के नीचे तपस्या करने लगे। तीन दिन और तीन रात तक तपस्या करने के बाद उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। उसी उरुवेला गांव का नाम बाद में बोध गया हो गया। ज्ञान प्राप्ति के बाद राजकुमार का नाम गौतम बुद्ध हो गया। बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति वैशाख पूर्णिमा के दिन हुई थी। इसलिए वैशाख की पूर्णिमा बुद्ध पूर्णिमा के नाम से भी जानी जाती है। कहा जाता है कि ज्ञान प्राप्ति के बाद गौतम बुद्ध ने वहां 7 हफ्ते अलग-अलग जगहों पर ध्यान करते हुए बिताया, और फिर बनारस के पास सारनाथ जाकर धर्म का प्रचार शुरू किया।

कहा जाता है कि गौतम बुद्ध को ज्ञान मिलने के 250 साल बाद राजा अशोक बोधगया पहुंचे। उन्होंने ही महाबोधि मन्दिर का निर्माण कराया था। बाद में एक ऐसा समय आया कि भारत में बौद्ध मत का एक तरह से लोप हो गया। फिर मुस्लिम आक्रन्ताओं ने भी इस मन्दिर को नष्ट करने का प्रयास किया। वर्षों तक इसकी देखरेख न होने के कारण यह मन्दिर मिट्टी में दब गया। माना जा रहा है कि 19वीं सदी में अलेक्जेंडर कनिंघम ने इस मन्दिर की मरम्मत कराई। 1883 में उन्होंने इस जगह की खुदाई करवाई और काफी मरम्मत के बाद बोधगया को अपने पुराने शानदार अवस्था में लाया गया।

गया का विष्णुपद मन्दिर

बोध गया से पहले गया नामक तीर्थ नगरी है। यहां विष्णुपद मन्दिर है। यह मन्दिर फल्गु नदी के किनारे है। मान्यता है कि इस मन्दिर का निर्माण भगवान विष्णु के पदचिह्नों पर किया गया है। यह मन्दिर 30 मीटर ऊंचा है। मन्दिर के गर्भ गृह में भगवान विष्णु के 40 सेंटीमीटर लम्बे पांव के निशान हैं। यहां श्राद्ध पक्ष में हन्दू अपने पितरों का श्राद्ध करते हैं। मान्यता है कि यहां भगवान विष्णु जीवों को मुक्ति देने के लिए गदाधर रूप में स्थित हैं। कथा है कि प्राचीन काल में गया नामक एक असुर देवताओं को परेशान करता था। देवताओं के निवेदन पर भगवान विष्णु ने उसे इसी क्षेत्र में मार गिराया। 

भगवान विष्णु ने वहां की मर्यादा स्थापित करते हुए कहा कि इसकी देह पुण्यक्षेत्र के रूप में होगी। यहां जो भक्ति, यज्ञ, श्राद्ध, पिण्डदान अथवा स्नानादि करेगा, वह स्वर्ग तथा ब्रह्मलोक में जाएगा, नरकगामी नहीं होगा। ब्रह्मा जी ने गया तीर्थ को श्रेष्ठ जानकर वहां यज्ञ किया और ऋत्विक रूप में आए हुए ब्राह्मणों की पूजा की।

ब्राह्मणों द्वारा प्रार्थना करने पर प्रभु ब्रह्मा ने कहा- गया में जिन पुण्यशाली लोगों का श्राद्ध होगा, वे बह्मलोक को प्राप्त करेंगे।

बोधगया और गया में अनेक देशों से बौद्ध और हिन्दू तो आते ही हैं साथ ही अन्य मत-पंथों के लोग भी बड़ी संख्या में आते हैं। बोधगया हवाई मार्ग और रेल मार्ग से भी जुड़ा हुआ है। दिल्ली से आप सीधे गया पहुंच सकते हैं। पटना होते हुए भी गया जाया जा सकता है।

साभार: पांचजन्य 

Thursday, July 11, 2013

SINDHUVAN - सिंधुवन में बद्री-केदार की महिमा अपार


सिंधुवन में बद्री-केदार की महिमा अपार





यमुनानगर जिले के कपाल मोचन से करीब 15 किलोमीटर व बिलासपुर गांव से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर हिमालय की शिवालिक की पहाड़ियों के बीच सिंधुवन में स्थित आदिबद्री नाम से प्रसिद्ध ऐतिहासिक धार्मिक स्थल को भगवान बद्रीनाथ के प्राचीन निवास स्थान और सरस्वती नदी के उद्गम स्थल के रूप में जाना जाता है।

अधिकतर श्रद्धालु मानते हैं कि हिमालय में तपस्या करने से पूर्व भगवान विष्णु ने सिंधुवन में सरस्वती नदी के उद्गम स्थल पर तप किया था। इसीलिए इस स्थान को आदिबद्री नाम से जाना जाता है। यहीं पर भगवान केदारनाथ का मंदिर भी स्थित है जो उत्तराखंड के दुर्गम रास्तों में स्थित बद्रीनाथ और केदारनाथ धाम की यात्रा करने की तरह पुण्य फल प्रदान करते हैं। चार धामों के रूप में माने जाने वाले इस ऐतिहासिक धार्मिक स्थल पर सरस्वती नदी के उत्तरी तट पर श्री आदिबद्री नारायण नाम से भगवान बद्रीनाथ का प्राचीन मंदिर स्थित है तो दक्षिण दिशा में भगवान केदारनाथ का, पूर्व में माता मंत्रा देवी व पश्चिम में मां सरस्वती कुंड है। प्राकृतिक सौंदर्य से सराबोर यह धार्मिक स्थल अनेक वर्षो से श्रद्धालुओं की आस्था व अटूट विश्वास का प्रतीक बना हुआ है। यहां पर स्थित केदारनाथ मंदिर में स्थापित शिवलिंग व मंदिर के बाहर नंदी की प्रतिमा हर श्रद्धालु को आस्थामय कर देते हैं। यहां पर हर रविवार और सावन मास में प्राचीन शिवलिंग के दर्शन कर मन्नतें मांगने के लिए भक्तों का तांता लगा रहता है। यहां कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर पूर्णमासी तक और अक्षय तृतीया तक वर्ष में दो बार मेला भी लगता है। हर रविवार को यहां पर भक्तों द्वारा भंडारा भी लगाया जाता है।

यहां पर स्थित केदारनाथ मंदिर के पुजारी कृपा शंकर का कहना है कि इस प्राचीन मंदिर को आदिगुरु शंकराचार्य ने स्थापित किया था। सरस्वती नदी के उत्तरी तट पर स्थित भगवान बद्रीनाथ के श्री आदिबद्री नारायण मंदिर में चार भुजाओं वाली तप की मुद्रा में भगवान विष्णु की प्रतिमा हर श्रद्धालु को सहज ही आकर्षित कर लेती है। आदिबद्री नारायण मंदिर के पुजारी देवकीनंदन शास्त्री का कहना है कि भगवान बद्रीनाथ ने हिमालय प्रस्थान से पहले इसी स्थान पर तप किया था जिस कारण इस स्थान को आदिबद्री नाम से जाना जाता है। पृथ्वी पर भगवान विष्णु के तप करने के दौरान माता लक्ष्मी ने बेरी के पेड़ के रूप में प्रकट रहकर विष्णु को छाया व रक्षा प्रदान की थी। लक्ष्मी बद्री रूप में थी तो यज्ञ की सफलता के लिए उन्होंने मंत्रों से मां मंत्रा को प्रकट किया। श्री आदिबद्री नारायण मंदिर से काफी ऊंचाई पर संपूर्ण विश्व में मंत्रों द्वारा उत्पन्न एकमात्र माता मंत्रा देवी का मंदिर पिंडी रूप में पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। पुजारी का कहना है कि आदिबद्री का अर्थ ही प्राचीन बेरी का पेड़ है जिनको इसी स्थान पर पहाड़ी पर स्थापित किया गया है। करीब तीन किलोमीटर की चढ़ाई के बाद हिमाचल के सिरमौर जिले व यमुनानगर की सीमा रेखा पर स्थित मंत्रा देवी के मंदिर में भी हर श्रद्धालु बड़ी आस्था से पहुंचता है। माना जाता है कि इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने हिमालय प्रस्थान से पहले तप किया था। इसीलिए यमुनानगर के इस आदिबद्री नामक ऐतिहासिक धार्मिक स्थल को बद्रीनाथ धाम से भी प्राचीन माना जाता है। इसी स्थान के पास बाबा गोरखनाथ की इष्ट रणचंडी के रूप में प्रचलित गोशाला भी है जो भक्तों के कष्टों को हर लेती है। यहां पर अष्टबसु धारा से आठ अलग-अलग स्वादों में जल प्रवाहित होता है। भारतवर्ष में प्रथम प्रयोगात्मक वनस्पति यज्ञशाला भी यहां स्थित है। सरस्वती नदी के उद्गम स्थल के दर्शनों के लिए यहां अनेक श्रद्धालु तो आते ही रहते हैं, पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम भी यहां पर आ चुके हैं। उद्गम स्थल से निकले पुरातन अवशेष भी यहां पर संग्रहीत किए गए हैं। इस सिंधुवन क्षेत्र में भगवान बद्रीनाथ व केदारनाथ की अपार महिमा दिखाई देती है।

साभार : दैनिक जागरण 

Wednesday, June 12, 2013

सिन्हाचालम देवस्थानम - SINHACHALAM DEVSTHANAM







दक्षिण भारत में विष्णु भगवान को समर्पित अनेक मंदिरों में से एक महत्वपूर्ण मंदिर है- सिंहाचलम देवस्थान। यह मंदिर आंध्रप्रदेश के विशाखापट्टनम शहर से लगभग 16 किमी. दूर एक 800 फुट ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। सिंहाचलम का अर्थ है-सिंह की पहाड़ी। इसलिए इस मंदिर को सिंहाचलम कहा जाता है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि यह भगवान विष्णु के एक नहीं दो अवतारों को समर्पित है। वराह अवतार और नरसिंह अवतार।

प्रचलित कथा

इस संदर्भ में एक पौराणिक कथा के अनुसार मंदिर की स्थापना भक्त प्रह्लाद द्वारा की गई थी। हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकश्यप राक्षसों के अत्याचार से जगत को मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से भगवान विष्णु इन्हीं दो अवतारों में प्रकट हुए थे। पहले वराह अवतार लेकर उन्होंने हिरण्याक्ष का संहार किया उसके बाद जब भक्त प्रह्लाद पर हिरण्यकश्यप के अत्याचार बढ़ने लगे तो उन्होंने नरसिंह रूप में अवतार लिया क्योंकि हिरण्यकश्यप ने यह वरदान प्राप्त कर लिया था कि न मनुष्य उसे मार सके न ही पशु, न वह दिन में मरे न रात को, न घर में भीतर उसे कोई मारे न घर के बाहर, न किसी अस्त्र से मरे न किसी शस्त्र से। तो भगवान विष्णु ने आधा नर और आधा पशु रूप में अवतार लेकर संध्याकाल में उसके महल की दहलीज पर उसका वध अपने तीक्ष्ण नखों द्वारा किया था। बाद में प्रह्लाद की प्रार्थना पर भगवान ने इसी पहाड़ी पर अपने दोनों अवतारों के रूप में उन्हे दर्शन दिए थे। भगवान के उन्हीं रूपों को ध्यान में रख प्रह्लाद ने यहां मंदिर का निर्माण कराया तथा उसमें वराह-नरसिंह रूप की प्रतिमा की स्थापना की।

मंदिर की पुन:स्थापना

कालांतर में सिंहाचलम पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर का महत्व घटने लगा। बहुत समय बाद राजा पुरुरवा अपनीप्रेयसी उर्वशी के साथ मार्ग में इस पहाड़ी पर रुके तो उर्वशी ने मंदिर में भगवान के इस अनोखे रूप के दर्शन किए। कहते है कि वह अक्षय तृतीया का दिन था और उसी समय आकाशवाणी हुई कि भगवान के तेज को शांत करने के लिए चंदन का लेप किया जाए। तब पुरुरवा ने चंदन के लेप से प्रतिमा को ढक दिया। तभी से आज तक प्रतिमा पर नित्य चंदन का आलेपन किया जाता है। पुरुरवा द्वारा इस मंदिर की पुन:स्थापना भी की गई।

वास्तु शिल्प का अद्भुत नमूना

वर्तमान मंदिर मूल रूप में 11वीं शताब्दी में बना था और 17वीं शताब्दी तक इसके वास्तु शिल्प में परिवर्तन भी हुआ। मंदिर में स्थित स्तंभ पर 11वीं से 17वीं शताब्दी तक के शिला लेख इस बात का प्रमाण हैं। मंदिर कावास्तुशिल्प दक्षिण भारतीय तथा द्रविड़ियन नागर शैली का मिला-जुला रूप है। इसका गोपुरम अत्यंत भव्य एवंप्रभावशाली है। गर्भगृह में वराह नरसिंह की लगभग ढाई फुट ऊंची प्रतिमा है, जिसमें भगवान त्रिभंगी मुद्रा में विराजमान है। गर्भगृह के सामने मंदिर का मुखमंडप है। यहां स्थित एक स्तंभ फूल, रेशमी कपड़े और चांदी से सजा है। नि:संतान दंपती इस स्तंभ के समक्ष संतान प्राप्ति हेतु प्रार्थना करते है। मंदिर के उलर में कल्याण मंडप है। जिसमें 96 नक्काशीयुक्त सुंदर स्तंभ है। मंदिर में भगवान के अन्य अवतार जैसे मत्स्य अवतार व धनवंतरी अवतार आदि की प्रतिमा भी है।

प्रतिवर्ष अक्षय तृतीया पर यहां चंदना यात्रा उत्सव होता है। उस दिन भगवान के वास्तविक दर्शन होते है क्योंकि वर्ष में उसी दिन प्रतिमा पर से चंदन का लेप हटाया जाता है। चैत्र मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी पर यहां पांच दिन का कल्याणोत्सव भी एक महत्वपूर्ण पर्व के रूप में मनाया जाता है। इसमें भगवान विष्णु तथा लक्ष्मी के विवाह की परंपरा है। सिंहाचलम दक्षिण भारत का एक समृद्ध मंदिर है।

साभार : जागरण सखी

Friday, June 7, 2013

मार्तण्ड मंदिर - MARTAND MANDIR - KASHMIR







कश्मीर में अशांति के दो दशकों में जिन मंदिरों को सबसे ज्यादा उपेक्षा झेलनी पड़ी, उनमें से एक है अनंतनाग जिले में म˜न स्थित मार्तण्ड मंदिर। यह उत्तर भारत में सूर्य के गिने-चुने मंदिरों में से प्रमुखतम माना जाता है।

कहा जाता है कि म˜न भी मार्तण्ड का ही अपभ्रंश है। सूर्य मार्तण्ड ऋषि कश्यप व अदिति के तेरहवें पुत्र माने जाते हैं। हिंदू मिथकों में कश्मीर का जिक्र भी कई जगहों पर आता है। मिथकों के अनुसार, 2600 ई.पू. में पांडववंशीय रामदेव जी ने यहां मंदिर बनवाया। उसके बाद 742 ई. में राजा ललितादित्य ने मार्तण्ड इलाके में मंदिर बनवाए। उसके बाद नौवीं सदी के अंत में राजा अवंतीवर्मन और दसवीं सदी में राजा कलशक ने मंदिर का विकास कराया। हर काल में इस मंदिर का माहात्म्य बना रहा।

बताया यह भी जाता है कि मुगल शासकों- शाहजहां से लेकर औरंगजेब तक के काल में भी इस इलाके का काफी विकास हुआ। मंदिर का जिक्र कल्हण की राजतरंगिणी में भी आता है। चूंकि यह मंदिर पहलगाम के रास्ते के नजदीक है, इसलिए इसकी मान्यता अमरनाथ यात्रा से भी जुड़ी है। यहां सरोवर में मछलियों को दाना खिलाए बगैर यह यात्रा पूरी नहीं मानी जाती।

साभार : http://sanatan.apnahindustan.com, सनातन धर्म 

Tuesday, June 4, 2013

बाबा अमरनाथ - BABA AMARNATH JI

पवित्र शिवलिंगम 

पवित्र कन्दरा 


कश्मीर की खूबसूरत लिद्दर घाटी के सुदूर किनारे पर एक संकरी खाई में बसे हैं बाबा अमरनाथ। गुफा में बर्फ के लिंग के रूप में स्थित महादेव शिव का यह स्थान समुद्र तल से 3888 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। बर्फ का यह शिवलिंग पूरी तरह प्राकृतिक है और कहा जाता है कि चंद्रमा के घटने-बढ़ने के साथ ही यह शिवलिंग भी घटता-बढ़ता है। मुख्य लिंग के अगल-बगल ही बर्फ के दो और शिवलिंग हैं जो देवी पार्वती और गणेश के प्रतीक हैं। इस गुफा के धार्मिक-पौराणिक इतिहास के बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं।

साल के ज्यादातर समय यह जगह बर्फ से घिरी रहती है और लिहाजा यहां पहुंचना लगभग नामुमकिन सा होता है। गर्मियों में बर्फ के पिघलने के बाद यहां जाने का रास्ता खुलता है। हर साल ज्येष्ठ-श्रावण के महीनों में यहां यात्रा होती है। हर साल यात्रा की अवधि भी कम ज्यादा होती रहती है। यात्रा की अवधि, इंतजामों और यात्रियों की मौत को लेकर पिछले कई सालों से यात्रा चर्चा में रही है। वैष्णो देवी की ही तरह अमरनाथ के लिए भी अलग से श्राइन बोर्ड बना हुआ है जो यात्रा के सारे इंतजाम देखता है। इस साल यात्रा 28 जून से शुरू होगी और कुल 55 दिन तक चलेगी। रक्षाबंधन के दिन 21 अगस्त को छड़ी मुबारक के अमरनाथ पहुंचते ही यात्रा संपन्न हो जाएगी। पिछले कुछ सालों में यात्रियों की मौत का मसला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने के बाद इस बार किसी भी व्यक्ति का हेल्थ सर्टीफिकेट के बगैर यात्रा के लिए रजिस्ट्रेशन नहीं किया जाएगा। यात्रा के लिए हर व्यक्ति को रजिस्ट्रेशन कराना जरूरी है और इस साल के लिए रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया 18 मार्च से पहले ही शुरू हो चुकी है। रजिस्ट्रेशन की एक तय प्रक्रिया है। साथ ही हर रूट पर किसी भी दिन जाने वाले यात्रियों की भी एक तय संख्या है। रजिस्ट्रेशन का जिम्मा देशभर में कई बैंकों के पास है और उनके पास हर रूट व हर तारीख का एक कोटा है। इसके अलावा इस साल यह भी तय किया गया है कि 13 वर्ष से कम और 75 वर्ष से ज्यादा उम्र के किसी भी व्यक्ति को इस साल यात्रा पर जाने की इजाजत नहीं होगी। इसी तरह छह हफ्ते या उससे ज्यादा के गर्भ वाली किसी महिला को भी यात्रा पर नहीं जाने दिया जाएगा।

कैसे जाएं

अमरनाथ यात्रा जाने के दो रास्ते हैं- पहला, पहलगाम से होकर और दूसरा सोनमर्ग से होकर। दोनों ही रास्तों के लिए पहले ट्रेन, बस अथवा हवाई जहाज से जम्मू या श्रीनगर पहुंचना होता है। उसके बाद आप पहलगाम या सोनमर्ग जा सकते हैं। उसके बाद अमरनाथ गुफा तक का आगे का सफर पैदल, खच्चर पर या पालकी में किया जा सकता है। पहलगाम का रास्ता बेस कैंप चंदनवाड़ी, पिस्सू टॉप, शेषनाग व पंजतरणी होते हुए गुफा तकपहुंचता है। जबकि सोनमर्ग का रास्ता बालटाल से सीधा गुफा तक ले जाता है। पहलगाम वाले रास्ते में आने-जाने में पांच दिन का वक्त लग जाता है। वहीं बालटाल से गुफा तक एक दिन में पहुंचा जा सकता है। 14 किलोमीटर का यह रास्ता खड़ी चढ़ाई वाला है। फिट लोग इस रास्ते पर बालटाल से जल्दी चढ़ाई शुरू करके उसी दिन दर्शन करके नीचे लौट आते हैं। इस रास्ते पर बालटाल और पहलगाम वाले रास्ते पर चंदनवाड़ी से आगे किसी भी व्यक्ति को यात्रा परमिट और स्वास्थ्य प्रमाणपत्र के बगैर जाने की इजाजत नहीं है। वहीं यात्रा के लिए हेलीकॉप्टर की सुविधा भी है। यात्रा के दौरान बालटाल और पहलगाम, दोनों ही जगहों से पंजतरणी तक होलीकॉप्टर की उड़ानें उपलब्ध रहेंगी। बालटाल से पंजतरणी तक का इकतरफा किराया 1500 रुपये और पहलगाम से पंजतरणी तक का इकतरफा किराया 2400 रुपये तय किया गया है। हेलीकॉप्टर के टिकट के लिए ऑनलाइन बुकिंग कराई जा सकती है। जो हेलीकॉप्टर से अमरनाथ जाना चाहते हैं, उन्हें अलग से रजिस्ट्रेशन कराके यात्रा परमिट भी लेने की जरूरत नहीं है। हेलीकॉप्टर का टिकट उसके लिए पर्याप्त है।


पहलगाम और सोनमर्ग, दोनों ही स्थानों पर रुकने के लिए कई होटल व रिजॉर्ट हैं। वहीं, आगे यात्रा मार्ग पर यात्रियों के लिए कैंप व खाने-पीने के पर्याप्त इंतजाम होते हैं। मणिगाम, बालताल व पंजतरणी में डेढ़ सौ से लेकर पांच सौ रुपये तक में रुकने की सुविधा मिल जाती है। यात्रा के दौरान खच्चरों व पालकियों के रेट भी तय हैं। आपको बस मौसम व थकावट से जूझने के लिए उत्साह, जीवट, शारीरिक क्षमता और जरूरी कपड़े-दवाइयां चाहिए होते हैं।

साभार : दैनिक जागरण 

Thursday, May 30, 2013

मां श्री त्रिपुर बाला शक्ति पीठ - देवबंद - MA BALASUNDRI - DEVBAND

माँ त्रिपुर बाला सुन्दरी 


मां श्री त्रिपुर बाला शक्ति पीठ की क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में अलग पहचान है। नवरात्र के शुरुआत से ही यहां देश के कोने-कोने से श्रद्धालुओं की भीड़ जुटनी शुरू हो जाती है।

मां श्री त्रिपुर बाला सुंदरी शक्ति पीठ की स्थापना आदि अनादी काल से पूर्व हुई थी। जहां आज यह शक्ति पीठ विराजमान है, पुराणकाल में यहां घना जंगल था। इस कारण यह देवी वन कहलाता था। उन दिनों पतित पावनी गंगा भी इसी क्षेत्र से होकर बहती थी। देवी कुंड का भी एक अपना अलग ही महत्व है, क्योंकि महाभारत काल में पांड़व भी अपने अज्ञात वास की कुछ अवधि में यहां रुके थे। वीर अर्जुन ने भी इसी दौरान यहीं शक्ति साधना की थी। मां श्री बाला सुंदरी महाशक्ति जगदंबा का एक रूप है। ब्रह्म, विष्णु ओर रूद्र ये तीनों पुर जिसमें समाहित है, वह त्रिपुर मां बाला सुंदरी है। इतना ही नहीं चैत्र मास की चौदस पर यहां विशाल मेले का आयोजन किया जाता है।

मेले से एक दिन पूर्व आता है आंधी तुफान-

मां श्री त्रिपुर बाला सुंदरी शक्ति पीठ की एक रहस्यपूर्ण बात यह है कि पीठ पर पूजा के मुख्य दिन चैत्र चौदस पर लगने वाले मेले की रात से पूर्व यहां पर आंधी व तूफान आता है तथा भारी वर्षा भी होती है। जिसके संदर्भ में मंदिर समिति के अध्यक्ष पंडित सतेंद्र शर्मा का कहना है कि ऐसा इसलिए होता है कि इस दौरान मां की बहनों का आना जाना होता है। जो सदैव शक्ति पीठ में ही विराजमान रहती हैं।

मां ने भंडसासुर का किया था वध- देवी कुंड का इतिहास में एक अलग ही महत्व है। क्योंकि इसी स्थान पर श्री त्रिपुर मां बाला सुंदरी ने महा दानव भंडसासुर का वध किया था, जो एक 105 ब्रह्मडों का अधिपति था।

देव भूमि का मिले दर्जा- मंदिर समिति के अध्यक्ष पंडित सतेंद्र शर्मा का कहना है कि आज तक भी किसी भी सरकार ने मंदिर के सौंदर्यीकरण के लिए कोई सहायता नहीं की। मंदिर की देखरेख का सारा खर्च मंदिर समिति स्वयं वहन कर रही है। वहीं पंडित गौरव विवेक का कहना है कि प्रदेश सरकार को इसका महत्व समझते हुए देवबंद को देव भूमि का दर्ज दे देना चाहिए।

साभार :  दैनिक जागरण 

Monday, April 15, 2013

कुंजापुरी शक्तिपीठ मंदिर - Kunjapuri Shakti Peeth Temple

माँ कुंजापुरी देवी (चित्र साभार मेरा पहाड़ फोरम)


कुंजापुरी माता के प्रमुख शक्ति एवं सिद्ध पीठों में से एक हैं जहां मां के अंग का एक भाग गिरा था. ओर तभी से एक पवित्र तीर्थ स्थल के रूप में जाना जाने लगा. कुंजापुरी मंदिर उत्तराखंड में स्थित 51 सिद्ध पीठों में से एक माना जाता है. मंदिर का सरल श्वेत प्रवेश द्वार सभी को आकर्षित करता है जो सेना द्वारा मां को अर्पण किया गया है. 

यह मंदिर गढ़वाल के सुंदर रमणीक स्थलों में से भी एक है इसके चारों ओर प्रकृति की सुंदर छ्टा के दर्शन होते हैं. पहाड़ों पर स्थित यह मंदिर भक्तों की आस्था का अटूट केन्द्र है जिसकी डोर माता के दर्शनों से बंधी हुई होती है तथा भक्त यहां खींचा चला आता है. ये मंदिर ऋषिकेश से ३५ किलोमीटर ऊपर नरेन्द्र नगर के पास स्थित हैं.

कुंजापुरी मंदिर बहुत ही सुंदर रूप से निर्मित किया गया है कुंजापुरी मंदिर का निर्माण सन 1979 के समय किया गया था. मंदिर का प्रवेश द्वार ही इतना आकर्षक है की मंदिर की आभा में चार चांद लगा देता है. मंदिर तक पहुँचने के लिए सीढ़ियां का इस्तेमाल किया जाता है जो मंदिर की उँचाई से वाक़िफ़ कराती प्रतीत होती हैं. 

मंदिर परिसर में शिव ,भैरों, महाकाली, तथा नरसिंह की मूर्तियां विराजित हैं. कुंजापुरी मंदिर श्वेत रुप में निर्मित है परंतु फिर भी मंदिर के कुछ भागों में अन्य मनमोहक रंगों का भी उपयोग किया गया है. मंदिर की शिल्प कला बहुत ही उत्कृष्ट है. प्रवेश द्वार के सामने शेर की मूर्ति को देखा जा सकता है.

जो देखने में ऎसा प्रतीत होता है जैसे की यह शेर मां के मंदिर की रखवाली में लगा हो. मंदिर के गर्भ गृह में गड्ढा बना हुआ है मान्यता है कि इसी स्थान पर माता का कुंजा गिरा था इस स्थान को बहुत ही पूजनिय माना जाता है यहीँ माँ की पूजा की जाती है.
कुंजापुरी मंदिर कथा | Kunjapuri Temple Story In Hindi

कुंजापुरी सिद्धपीठ मां के भक्तों का प्रमुख शक्ति स्थल है इस स्थान के बारे में पौराणिक आख्यान भी प्राप्त होते हैं. जिसके अनुसार राजा दक्ष की पुत्री सती का विवाह जब भगवान शिव से हुआ तो दक्ष को यह संबंध पसंद नहीं था इस कारण जब एक बार दक्ष ने अपने प्रजापति बनने के उपलक्ष में एक यज्ञ का आयोजन करवाया तो उसमें उसने अपनी पुत्री सती एवं भगवान शिव को निमंत्रण नहीं दिया

इस पर सती ने पिता के यज्ञ मे जाने के लिए भगवान शिव से आज्ञा मांगी परन्तु भगवान शिव ने उन्हें जाने से रोका किंतु सती के बार बार आग्रह करने पर शिव ने विवश होकर उन्हें यज्ञ में जाने की आज्ञा प्रदान की. जब देवी सती यज्ञ में पहुँची तो देखा की वहां पर शिव का स्थान ही नहीं है तथा दक्ष द्वारा किए अपने पति के इस अपमान को सह न सकीं और उसी समय यज्ञ-स्थल पर बने हवन कुंड में समा गईं.

जब भगवान शिव को इस बात का पता चला तो उन्होंने दक्ष को मारने के लिए अपने गणों को भेजा भगवान के गण ने दक्ष का सर काट कर भगवान के समक्ष प्रस्तुत किया और पूरे यज्ञ को तहस नहस कर दिया भगवान शिव के क्रोध को देखकर सभी देव घबरा गए और भगवान शिव से क्षमा याचना करने लगे.

इस पर भगवान शिव शांत हुए उन्होंने दक्ष को जीवन दान दिया एवं यज्ञ पूरा करने दिया. भगवान शिव हवन कुंड से सती के शरीर को निकाल कर शोकमग्न होकर वहां से चले जाते हैं और सती के शरीर को अपने कंधों पर लेकर आकाश में विचरण करने लगते हैं. इस घटना को देखकर सारी सृष्टि डोलने लगी.

इस विचित्र संकट को देखकर सभी देव भगवान विष्णु के पास जाते हैं. इस समस्या को दूर करने का आग्रह करते हैं इस पर विष्णु भगवान अपने चक्र से सती के निर्जिव शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं और इस प्रकार जहां-जहां सती के शरीर के अंग गिरते हैं वहां-वहां शक्ति स्थल निर्मित हुए उनमें से एक है कुंजापुरी सिद्ध शक्ति पीठ है. 

कुंजापुरी मंदिर महत्व  

कुंजा पुरी शक्ति पीठ भारत के प्रमुख तीर्थ स्थलों में महत्वपूर्ण है. देवी कुंजापुरी को समर्पित यह धार्मिक स्थल रमणीय दृश्यों से भरपूर है यहां से आप अनेक महत्वपूर्ण स्थलों को देख सकते हैं. यहां से स्वर्गारोहिणी, गंगोत्री, ऋषिकेश, हरिद्वार जैसे क्षेत्रों को देखा जा सकता है.

यहां आने वाले सभी भक्तों की मनोकमनाएं पूर्ण होती हैं माता के इस दरबार में हमेशा मां के जय कारों की गुंज सुनाई पड़ती है. मां के रूप को इस मंत्र द्वारा उल्लेखित किया जा सकता है. 

"या देवी सर्व भूतेशु शक्ति रूपेण संशतः

नमोतस्ये नमोतस्ये नमोतस्ये नमो नमः"

साभार : ASTROBIX.COM

Wednesday, March 20, 2013

बिजली महादेव - BIJLI MAHAADEV (KULLU)





कुल्लू से उत्तर-पूर्व में आठ किलोमीटर दूर खराल घाटी में हैं बिजली महादेव। यह मंदिर कितना पुराना है, इसका कोई अंदाजा नहीं है। लोगों की ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण सैकड़ों साल पहले हुआ था।

इस मंदिर से लेकर कई कथाएं भी जुड़ी हुई हैं। इनमें से एक का ताल्लुक ऋषि वशिष्ट से है तो दूसरे का कुलंत नाम के एक राक्षस से।

कहा जाता है कि जो भी इस मंदिर में दर्शन के लिए आता है, उसके जीवन भर के पाप खत्म हो जाते हैं। पहाड़ी शैली में बने इस मंदिर को लेकर कई कहानियां कही जाती हैं।

ऋग्वेद में जिक्र है कि, ऋषि वशिष्ठ ने भगवान रूद्र से प्रार्थना की कि वे अपनी अंदर की ऊर्जा को कम करें, ताकि महाविनाश से बचा जा सके। भगवान रूद्र ने मानव कल्या ण के लिए अपनी ऊर्जा अंदर सोख ली। 

यह घटना पार्वती और व्या्स नदी के संगम पर हुई थी, इसलिए यहां भगवान शंकर का मंदिर बनाया गया और नाम रखा गया बिजलेश्वइर महादेव, जिसे आज लोग बिजली महादेव कहते हैं।

एक अन्य कथा के अनुसार, पहाड़ों पर कुलंत राक्षस ने  उत्पात मचा रखा था। ऋषि- मुनियों ने इस राक्षस को मारने के लिए देवताओं से प्रार्थना की। देवताओं ने इस राक्षस की सेना को तो खत्म कर दिया, लेकिन राक्षस भाग खड़ा हुआ।

इसके बाद देवताओं ने इस राक्षस को खत्मे करने के लिए भगवान शंकर से प्रार्थना की। भगवान ने बार-बार आकाशीय बिजली गिराई। 

मानव जीवन को बचाने के लिए भगवान ने शिवलिंग स्थारपित कर खुद बिजली के प्रहार झेलने शुरू किए। तभी से यह शिवलिंग बिजली के प्रहार झेल रहा है। यह प्रतीक है शिव के कल्याणकारी रुप का।

इस मंदिर का संबंध एक और लोककथा से है। लोककथा के अनुसार पुराने समय में जालंधर दैत्य का अस्तित्व था। उसे सागर पुत्र भी कहते हैं। उस राक्षस ने अपने तप से सृष्टि के रचयिता आदि ब्रह्म को जीत लिया था और अपने बल से जग के पालनहार विष्णु को भी बंदी बना लिया था। उसने सभी देवताओं को पराजित कर त्रिलोक में उत्पात मचा रखा था। सभी उससे भयभीत थे। दैत्य त्रिलोक का स्वामी बनना चाहता था। कहते हैं कि इसी स्थान पर उसका शिवजी से भयंकर युद्ध हुआ था।

भोलेनाथ ने उसे खत्म कर सभी देवताओं को उसके चंगुल से मुक्त करवाया था। जिस गदा से शिवजी ने उस दैत्य का वध किया था, वह यहीं रखी गई और पिंडी के रूप में परिवर्तित हो गई। यह आज भी मौजूद है। इस विषयुक्त गदा को निर्विष करने के लिए इंद्रदेव ने आकाशीय बिजली गिराई।

आज भी कुछ वर्षों के अंतराल में जब उक्त पिंडी पर बिजली गिरती है तो यह टुकड़े-टुकड़े हो जाती है। इसे जोड़ने के लिए मक्खन का इस्तेमाल होता है और शायद यह भी एक कारण है कि इसका नाम बिजली महादेव पड़ा है। 

एक अन्य कथा के अनुसार यहां साथ लगते गांव भ्रैण में एक बार एक औरत को भोलेनाथ का दर्शन मोहरे के रूप में हुआ, जिसे उसने माश, स्थानीय भाषा में जिसे माह कहते हैं की तिजोरी में रखा। बाद में इसका नाम महादेव पड़ गया। बिजली महादेव की यात्रा एक रोमांचक अनुभव है।

बिजली महादेव के मंदिर के समीप जो पौराणिक वर्णन लिखा है...

"श्री भगवान शिव का सर्वोत्तम तपस्थान (मथान) 7874 फीट की ऊंचाई पर है। श्री सदा शिव इस स्थान पर तप योग समाधि द्वारा युग-युगांतरों से विराजमान हैं। सृष्टि में वृष्टि को अंकित करता हुआ यह स्थान बिजली महादेव जालंधर असुर के वध से संबंधित है। इसे कुलान्त पीठ भी कहा गया है। सात परोली भेखल के अंदर भोले नाथ दुष्टांत भावी, मदन कथा से नांढे ग्वाले से संबंधित है।

यहां हर वर्ष आकाशीय बिजली गिरती है। कभी ध्वजा पर तो कभी शिवलिंग पर। जब पृथ्वी पर भारी संकट आन पडता है तो भगवान शंकर जीवों का उद्धार करने के लिये पृथ्वी पर आए भारी संकट को अपने ऊपर बिजली प्रारूप द्वारा सहन करते हैं। यही कारण है कि बिजली महादेव यहां विराजमान हैं।"

बिजली महादेव मंदिर ब्यास नदी के किनारे स्थित है। यह कुल्लू का एक लोकप्रिय तीर्थ स्थल है। संहार के देवता, शिव को समर्पित यह मंदिर समुद्र तल से 2450 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह मंदिर भारत के उत्तर में हिमालय की तलहटी में रहने वाले लोगों का विशेष आराधना स्थल है। मंदिर स्थापत्य शैली का प्रतिनिधित्व करता है। यह मंदिर 60 फीट लंबे स्तंभ के लिए प्रसिद्ध है।

लोक आस्था के अनुसार, मंदिर के अंदर रखी मूर्ति शिव का प्रतीक 'शिवलिंग', बिजली की वजह से कई टुकड़े में बंट गई थी। बाद में मंदिर के पुजारियों ने टुकड़े एकत्र किये और उन्हें मक्खन की मदद से जोड़ दिया।

शिवलिंग के हिस्से जोड़ने का यह समारोह प्रतिवर्ष मनाया जाता है। इस मंदिर तक पहुंचने का रास्ता कठिन चढ़ाई वाला है। यहां देवदार के पेड़ हैं। मंदिर से पार्वती और कुल्लू घाटी के सुंदर दृश्यों को देखा जा सकता है।

ब्यास और पार्वती नदी के संगम कुल्लू से दस किलोमीटर दूर एक स्थान है भून्तर। यह मंडी की तरफ है। यहां पर एक तरफ से ब्यास नदी आती दिखती है और दूसरी तरफ से पार्वती नदी। दोनों की बीच एक पर्वत है। इसी पर्वत की चोटी पर स्थित है बिजली महादेव।

बिजली महादेव से कुल्लू भी दिखता है और भून्तर भी। दोनों नदियों का शानदार संगम भी दिखता है। दूर तक दोनों नदियां अपनी-अपनी गहरी घाटियों से आती दिखती हैं। दोनों के क्षितिज में हिमालय की बर्फीली चोटियां भी दिखाई देती हैं।

यूं तो इस स्थल पर साल भर स्थानीय लोगों और देशी-विदेशी पर्यटकों का आना-जाना लगा रहता है, लेकिन श्रावण माह में यहां एक विशाल मेले का आयोजन होता है। श्रावण महीने में यहां अच्छी-खासी भीड़ रहती है।

बिजली महादेव मंदिर...

हर साल सावन में शिवलिंग पर बिजली गिरती है। शिवलिंग टूटकर टुकडे-टुकडे होकर बिखर जाता है। फिर उसे मक्खन से जोड़ा जाता है।

बिजली महादेव का मंदिर जिले के प्रमुख देवस्थलों में से एक है। यहां पहुंचकर श्रद्धालुओं को प्रकृति का खूबसूरत नजारा भी देखने को मिलता है। इस नजारे को देखकर कश्मीर का एहसास हो जाता है।

साभार : सफर हैं सुहाना, फेसबुक..