Wednesday, June 27, 2012

अपूर्ण होकर भी पूर्ण है श्रीजगन्नाथ जी




चार प्रमुख धामों में से एक, उड़ीसा के पूर्वी समुद्रतट पर स्थित जगन्नाथपुरी के गुंडीचा मंदिर में श्रीजगन्नाथजी का अधूरा स्वरूप दिखाई देता है, जो वास्तव में हमें पूर्णता की प्रेरणा देता है। लौकिक दृष्टि से भले ही उनका विग्रह (मूर्ति) अधूरा दिखता हो, परंतु आध्यात्मिक दृष्टि से वे पूर्ण परब्रहृम हैं। उनके इस विलक्षण रूप से प्रेरणा मिलती है कि हमें ईश्वर ने जो कुछ भी दिया है, उसके संपूर्ण सदुपयोग से हम सफलता प्राप्त कर सकते हैं। हम प्राय: अपनी असफलता का दोष ईश्वर पर मढ़ देते हैं कि यदि हमारे पास यह होता, तो हम ऐसा कर देते। जबकि सत्य यह है कि इस प्रकृति में ईश्वर के अलावा हर कोई अपूर्ण ही है। फिर भी जिन लोगों ने अपने उपलब्ध साधनों का सदुपयोग किया, उन्होंने बड़ी उपलब्धियां अर्जित कीं।


अत: हमें ईश्वर ने जो कुछ भी दिया है, उसके लिए हमें ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए तथा जो नहीं मिला, उस पर हमारी दृष्टि नहीं होनी चाहिए। जो स्वयं कर्मठ और दृढ़ संकल्पवान होते हैं, वे अपनी कमियों को भी पूर्णता में बदल देते हैं। भगवान जगन्नाथ का यह स्वरूप प्रेरणा देता है कि हम ईश्वर द्वारा प्रदत्त ऊर्जा का सही विनियोजन करके लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।


भगवान जगन्नाथ का श्रीविग्रह (मूर्ति) लकड़ी का बना है तथा अधूरा दिखता है। उनके हाथ पूरे नहीं बने हैं। मुखमंडल भी पूर्णतया निर्मित नहीं है। सामान्यत: मान्यता के अनुसार अंगहीन देव-प्रतिमा की पूजा नहीं होती है, परंतु श्रीजगन्नाथजी इसके अपवाद हैं। एक पौराणिक कथा के अनुसार द्वापर में माता रोहिणी द्वारा ब्रज-लीला के गोपी-प्रेम-प्रसंग सुनाने और उन्हें श्रीकृष्ण और बलराम द्वारा अचानक सुन लेने से श्रीकृष्ण, बलरामजी और सुभद्राजी की देह द्रवित हो गई थी। तब भगवान श्रीकृष्ण ने नारदजी के अनुरोध पर कहा था कि कलियुग में दारुविग्रह (लकड़ी की मूर्ति) में वे तीनों इसी रूप में प्रतिष्ठित होंगे।


मान्यता है कि जहां आज मंदिर है, वहां पहले नीलाचल पर्वत था, जहां नीलमाधव की मूर्ति थी। एक कथा के अनुसार, मालवदेश का राजा इंद्रद्युम्न नीलमाधव के दर्शन करने वहां पहुंचा। लेकिन तब तक पर्वत भूमिगत हो चुका था। इंद्रद्युम्न को एक दिन समुद्र में एक बहुत बड़ा लकड़ी का टुकड़ा दिखा। राजा ने उससे देव-मूर्ति बनवाने का निश्चय किया। देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा वृद्ध बढ़ई के रूप में वहां पहुंच गए। उन्होंने मूर्ति बनाने का काम इस शर्त पर शुरू किया कि जब तक वह मूर्ति-निर्माण करें, तब तक कोई अंदर न आए। लेकिन रानी के दबाव पर राजा इंद्रद्युम्न ने भवन का द्वार खुलवा दिया। वहां श्रीकृष्ण, बलरामजी और सुभद्राजी की अधूरी प्रतिमाएं पड़ी थीं। इन प्रतिमाओं को वहां प्रतिष्ठित कर दिया गया। जिस भवन में इन मूर्तियों का निर्माण हुआ था, उस स्थान पर आज गुंडीचा मंदिर है। प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को श्रीजगन्नाथ, श्रीबलभद्र और सुभद्राजी निजमंदिर से बाहर निकल कर, तीन पृथक रथों पर आरूढ़ होकर गुंडीचा मंदिर जाते हैं। यहां एक सप्ताह प्रवास करने के उपरांत ही तीनों देव-विग्रह वापस निज मंदिर पहुंचते हैं।
साभार : दैनिक जागरण

Wednesday, June 20, 2012

माँ वैष्णो देवी धाम


33 करोड़ देवी-देवता भी करते हैं मां वैष्णो की उपासना



33 करोड़ देवी-देवता भी करते हैं मां वैष्णो की उपासना

जम्मू से 45 मील दूर उत्तर-पश्चिम से शतशृंग नामक पर्वत है। कटरा नगर इस पर्वत के चरणों में बसा हुआ है। इस पर्वत के मध्यभाग में माता वैष्णो की पवित्र गुफा है। यह जम्मू के ऊधमपुर मंडल के अंतर्गत चिडि़आई नामक  गांव से लेकर रियासी तक लगभग मीलों तक फैली हुई तहदार चट्टान में बनी हुई है। जब माता वैष्णो आदि कुमारी स्थान से महिषासुर का पीछा करती हुई इस स्थान पर पहुंचीं तो गुफा के बाहर महिषासुर का संहार करने के उपरांत उन्होंने इसी गुफा में तप करने का निर्णय किया था।

प्राकृतिक शिलाखंड पर उभरी तीन पिंडियां हैं, दक्षिण भाग में महासरस्वती की, मध्य में वैष्णवी की तथा वामभाग में महाकाली की। मूल पराशक्ति एक है, अत: यह पिंडी भी मूल से एक ही है और लगभग पांच-छ: फुट लम्बी है। ऊपर आकर इसी पिंडी के तीन अलग-अलग  रूप हो गए हैं। ये तीनों पिंडियां सोने के पत्रों से मण्डित हैं। सबके सिर पर सोने के मुकुट और सोने के छत्र शोभायमान हैं। इन तीन  पिंडियों की पृष्ठभूमि में इन्हीं देवियों की साकार मूर्तियां स्थापित हैं।

मध्यवर्ती पिंडी माता महालक्ष्मी की है। महालक्ष्मी विष्णु की शक्ति है और इनका दूसरा नाम  वैष्णवी है। यह वैष्णवी पराशक्ति हैं।

शास्त्रों के अनुसार जो परमशुद्ध सत्स्वरूपा हैं, उनका नाम महालक्ष्मी है, परम परमात्मा श्रीहरि की वह शक्ति हैं हजार पंखुडिय़ों वाला कमल उनका आसन है। इनके मुख की शोभा तपे हुए स्वर्ण के समान है। इनका रूप करोड़ों चंद्रमाओं की कांति से सम्पन्न है। सम्पत्तियों की ईश्वरी होने के कारण अपने सेवकों को यह धन, ऐश्वर्य, सुख, सिद्धि और मोक्ष प्रदान करती हैं।

यह शक्ति सबकी कारण रूप हैं। सर्वोच्च पतिव्रता हैं और वैकुंठ लोक में अपने स्वामी श्री हरि की सेवा में लीन रहती हैं। गुफा में  दूसरी पिंडी माता महाकाली की है। महाकाली महाशक्ति का प्रधान अंश है। शुंभ और निशुंभ से होने वाले महासमर के समय यह भगवती दुर्गा के ललाट से प्रकट हुई थीं। इन्हें भगवती दुर्गा का आधा अंश माना जाता है। गुण और तेज में यह दुर्गा के समान ही हैं। इनका अत्यंत शक्तिशाली शरीर करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी है।

सम्पूर्ण शक्तियों में ये प्रमुख हैं।  यह परम योग स्वरूपिणी सम्पूर्ण सिद्धि प्रदान करने वाली हैं। श्री हरि की वह अनन्य भक्त हैं। तेज, पराक्रम और गुण में ये श्री हरि के तुल्य हैं। इनके शरीर का रंग काला है और इतनी शक्तिशाली हैं कि यदि यह चाहें तो एक ही सांस में सारे विश्व को नष्ट कर सकती हैं। जो भी मनुष्य महाकाली भगवती की पूजा करता है उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष तथा अन्य सांसारिक सम्पत्तियां प्राप्त होती हैं। ब्रह्म, देवता, मुनिगण और मानव सब इनकी उपासना करते हैं।

इनका एक प्रसिद्ध नाम चामुंडा है। इन्होंने असुरों के साथ होने वाले युद्ध में चण्ड-मुण्ड  नामक दो महाअसुरों का संहार किया था, अत: इनको  चामुंडा भी कहा जाने लगा। मधु-कैटभ द्वारा संकटग्रस्त होने पर इन्होंने ब्रह्मा और विष्णु को भयमुक्त किया था। इनकी कृपा से मानव निर्भय हो जाता है। युद्ध में उसे कोई पराजित नहीं कर सकता।

गुफा में तीसरी पिंडी महासरस्वती की है। महाशक्ति के तीसरे प्रमुख रूप का नाम महासरस्वती है। पारब्रह्म परमात्मा से संबंध रचाने वाली वाणी की अधिष्ठात्री, कवियों की इष्टदेवी, शुद्ध सत्यस्वरूपा और शांत रूपिणी हैं। वाणी, विद्या, बुद्धि और ज्ञान को प्रदान करने वाली यही देवी हैं। वाणी में श्रेष्ठता, विद्याओं और कलाओं में निपुणता, बुद्धि में विलक्षणता के लिए इनकी कृपा आवश्यक है।मां सरस्वती का शरीर अत्यंत गौर वर्ण का है। वह अत्यंत सुंदर और तेजस्वी हैं। इनका शरीर तेज की आभा से इतना कांतिमान रहता है कि करोड़ों चंद्रमाओं की आभा भी उनके सामने तुच्छ प्रतीत होती है।

इनकी कृपा से शास्त्र और ज्ञान संबंधी सभी भ्रम और संदेह मिट जाते हैं। मानव को स्मरण शक्ति प्रदान करने वाली माता सरस्वती को स्मृति शक्ति, ज्ञान शक्ति और बुद्धि शक्ति कहा गया है। प्रतिभा और कल्पना शक्ति भी यही हैं। इनकी मूर्ति तपोमयी है तपस्या करने वाले अपने भक्त को यह तत्काल फल प्रदान करती हैं। सिद्धि विद्या स्वरूपिणी होने के कारण वह सिद्धि देने वाली हैं।
यात्रा कथा
पवित्र गुफा लगभग 98 फुट लम्बी है। गुफा के भीतर व बाहर कई अन्य सांकेतिक दर्शन भी हैं। मान्यता है कि सभी 33 करोड़ देवी-देवताओं ने इस गुफा में किसी न किसी समय माता की उपासना की है व अपने चिन्ह छोड़े हैं। यह भी माना जाता है कि प्रात: व सायंकालीन पूजन व आरती के समय देवी-देवता पवित्र गुफा में माता की वंदना हेतु आते हैं। गुफा के मुख पर बाएं हाथ की ओर वक्रतुंड श्री गणेश के दर्शन हैं। समीप ही सूर्य व चंद्रदेव के चिन्ह हैं। गुफा में प्रवेश करते ही भैरों नाथ का शिला रूपी धड़ आता है। भैरों नाथ के धड़ के पश्चात श्री हनुमान के दर्शन होते हैं व उसी स्थान पर माता के पावन चरणों से होकर आती चरण गंगा कलकल बहती है।

इस स्थान के बाद यात्री को इसी चरणगंगा के जल में से होकर आगे बढऩा होता है जहां से 23 फुट की दूरी पर बाएं हाथ पर ऊपर की ओर गुफा की छत मानो शेषनाग के असंख्य फनों पर टिकी नजर आती है। शेषनाग के फन के नीचे माता का हवन कुंड व उसके पास माता के शंख, चक्र, गदा व पद्म के चिन्ह हैं। उसके ऊपर गुफा की छत को छूते हुए पांच पांडव, सप्त ऋषि, कामधेनु के थन, ब्रह्मा, विष्णु, महेश व शिव पार्वती के चिन्ह हैं।  

साभार : पंजाब केसरी 

चलो बाबा बर्फानी के द्वार

चलो बाबा बर्फानी के द्वार



आदि देव महादेव स्वयंभू पशुपति नीलकंठ भगवान आशुतोष शंकर भोले भंडारी को सहस्त्रों नामों से स्तुति कर पुकारा जाता है। शास्त्रों में जगह-जगह पर भगवान शिव के महात्म्य का वर्णन मिलता है। ऋग्वेद में भी शिवजी का गुणगान मिलता है।
    
 श्री अमरनाथ धाम एक ऐसा शिव धाम है जिसके संबंध में मान्यता है कि भगवान शिव साक्षात श्री अमरनाथ गुफा में विराजमान रहते हैं। 

धार्मिक व ऐतिहासिक दृष्टिïकोण से अति महत्वपूर्ण श्री अमरनाथ यात्रा को कुछ शिव भक्त स्वर्ग की प्राप्ति का माध्यम बताते हैं तो कुछ लोग मोक्ष प्राप्ति का। श्री अमरनाथ यात्रा हमारी धर्मनिरपेक्षता, राष्टï्रीय एकता व राष्टï्रीय अस्मिता की प्रतीक है। 

पावन गुफा में बर्फीली बूंदों से बनने  वाला हिमशिवलिंग ऐसा दैवी चमत्कार  है जिसे देखने के लिए हर कोई लालायित रहता है। भारत के कोने-कोने से और विदेशों से असंख्य शिव भक्त लगभग 14 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित श्री अमरनाथ की गुफा में प्रकृति के इस चमत्कार के दर्शन करने के लिए अनेकों बाधाएं पार करके भी पहुंचते हैं।

श्री अमरनाथ गुफा में स्थित पार्वती पीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है। मान्यता है कि यहां भगवती सती का कंठ भाग गिरा था। कश्मीर घाटी में स्थित पावन श्री अमरनाथ गुफा प्राकृतिक है। यह पावन गुफा लगभग160 फुट लम्बी, 100 फुट चौड़ी और काफी ऊंची है।

कश्मीर में वैसे तो 45 शिव धाम, 60 विष्णु धाम, 3 ब्रह्मïा धाम, 22 शक्ति धाम, 700 नाग धाम तथा असंख्य तीर्थ हैं परन्तु अति उत्तम तीर्थों में श्री अमरनाथ धाम का ही महात्म्य अधिक है। काशी में लिंग दर्शन एवं पूजन से दस गुणा, प्रयाग से सौ गुणा, नैमिषारण्य तथा कुरुक्षेत्र से हजार गुणा फल देने वाला श्री अमरनाथ स्वामी का पूजन है। देवताओं की हजार वर्ष तक स्वर्ण पुष्प मोती एवं पट्टï वस्त्रों से पूजा का जो फल मिलता है, वह श्री अमरनाथ की रसलिंग पूजा से एक ही दिन में प्राप्त हो जाता है। 

श्री अमरनाथ गुफा में शिव भक्त प्राकृतिक हिमशिवलिंग के साथ-साथ बर्फ से ही बनने वाले प्राकृतिक शेषनाग, श्री गणेश पीठ व माता पार्वती पीठ के भी दर्शन करते हैं। प्राकृतिक रूप से प्रति वर्ष बनने वाले हिमशिवलिंग में इतनी अधिक चमक विद्यमान होती है कि देखने वालों की आंखों को चकाचौंध कर देती है। हिमशिवलिंग पक्की बर्फ का बनता है जबकि गुफा के बाहर मीलों तक सर्वत्र कच्ची बर्फ ही देखने को मिलती है। मान्यता यह भी है कि गुफा के ऊपर पर्वत पर श्री राम कुंड है। भगवान शिव ने माता पार्वती को सृष्टिï की रचना इसी अमरनाथ गुफा में सुनाई थी।

गुफा की खोज  

इस गुफा की खोज बूटा मलिक नामक एक बहुत ही नेक और दयालु एक मुसलमान गडरिए ने की थी। वह एक दिन भेड़ें चराते-चराते बहुत दूर निकल गया। एक जंगल में पहुंचकर उसकी एक साधू से भेंट हो गई। साधू ने बूटा मलिक को कोयले से भरी एक कांगड़ी दे दी। घर पहुंचकर उसने कोयले की जगह सोना पाया तो वह बहुत हैरान हुआ। उसी समय वह साधू का धन्यवाद करने के लिए गया परन्तु वहां साधू को न पाकर एक विशाल गुफा को देखा। उसी दिन से यह स्थान एक तीर्थ बन गया।
 

गुफा से जुड़े रहस्य 

एक बार देवर्षि नारद कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर के दर्शनार्थ पधारे। भगवान शंकर उस समय वन विहार को गए हुए थे और पार्वती जी वहां विराजमान थीं। पार्वती जी ने देवर्षि के आने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा-देवी! भगवान शंकर, जो हम दोनों से बड़े हैं, के गले में मुंडमाला क्यों है? भगवान शंकर के वहां आने पर यही प्रश्र पार्वती जी ने उनसे किया। भगवान शंकर ने कहा-हे पार्वती! जितनी बार तुम्हारा जन्म हुआ है, उतने ही मुंड मैंने धारण किए हैं।

पार्वती जी बोलीं- मेरा शरीर नाशवान है, मृत्यु को प्राप्त होता है परन्तु आप अमर हैं, इसका कारण बताने का कष्ट करें। भगवान शंकर ने कहा -यह सब अमरकथा के कारण है। इस पर पार्वती जी के हृदय में भी अमरत्व प्राप्त करने की भावना पैदा हो गई और वह भगवान से कथा सुनाने का आग्रह करने लगीं। भगवान शंकर ने बहुत वर्षों तक टालने का प्रयत्न किया परन्तु अंतत: उन्हें अमरकथा सुनाने को बाध्य होना पड़ा। अमरकथा सुनाने के लिए समस्या यह थी कि कोई अन्य जीव उस कथा को न सुने। इसलिए शिव जी पांच तत्वों (पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्रि) का परित्याग करके इन पर्वत मालाओं में पहुंच गए और श्री अमरनाथ गुफा में पार्वती जी को अमरकथा सुनाई।

श्री अमरकथा गुफा की ओर जाते हुए वह सर्वप्रथम पहलगाम पहुंचे, जहां उन्होंने अपने नंदी (बैल) का परित्याग किया। तत्पश्चात चंदनबाड़ी में अपनी जटा से चंद्रमा को मुक्त किया। शेषनाग नामक झील पर पहुंच कर उन्होंने गले से सर्पों को भी उतार दिया। प्रिय पुत्र श्री गणेश जी को भी उन्होंने महागुणस पर्वत पर छोड़ देने  का निश्चय किया। फिर पंचतरणी नामक स्थान पर पहुंच कर शिव भगवान ने पांचों तत्वों का परित्याग किया।

इसके पश्चात ऐसी मान्यता है कि शिव-पार्वती ने इस पर्वत शृंखला में तांडव किया था। तांडव नृत्य वास्तव में सृष्टिï के त्याग का प्रतीक माना गया। सब कुछ छोड़ अंत में भगवान शिव ने इस गुफा में प्रवेश किया और पार्वती जी को अमरकथा सुनाई।किंवदंती के अनुसार रक्षा बंधन की पूर्णिमा के  दिन जो सामान्यत: अगस्त मास के मध्य में पड़ती है, भगवान शंकर स्वयं श्री अमरनाथ गुफा में पधारते हैं। ऐसा भी ग्रंथों में लिखा मिलता है कि भगवान शिव इस गुफा में पहले पहल श्रावण की पूर्णिमा को आए थे इसलिए उस दिन को श्री अमरनाथ की यात्रा को विशेष महत्व मिला। रक्षा बंधन की पूर्णिमा के दिन ही छड़ी मुबारक भी गुफा में बने हिमशिवलिंग के पास स्थापित कर दी जाती है।

श्री अमरनाथ गुफा में बर्फ से बने शिवलिंग की पूजा होती है। इस सम्बन्ध में अमरेश महादेव की कथा भी मशहूर है। इसके अनुसार आदिकाल में ब्रह्म, प्रकृति, अहंकार, स्थावर (पर्वतादि) जंगल (मनुष्य) संसार की उत्पत्ति हुई। इस क्रमानुसार देवता, ऋषि, पितर, गंधर्व, राक्षस, सर्प, यक्ष, भूतगण, दानव आदि की उत्पत्ति हुई।

इस तरह नए प्रकार के भूतों की सृष्टिï हुई परन्तु इंद्रादि देवता सहित सभी मृत्यु के वश में हुए थे। देवता भगवान सदाशिव के पास आए क्योंकि उन्हें मृत्यु का भय था। भय से त्रस्त सभी देवताओं ने भगवान भोलेनाथ की स्तुति कर मृत्यु बाधा से मुक्ति का उपाय पूछा। भोलेनाथ स्वामी बोले-मैं आप लोगों की मृत्यु के भय से रक्षा करूंगा। कहते हुए सदाशिव ने अपने सिर पर से चंद्रमा की कला को उतार कर निचोड़ा और देवगणों से बोले, यह आप लोगों के मृत्युरोग की औषधि है।

उस चंद्रकला के निचोडऩे से पवित्र अमृत की धारा बह निकली। चंद्रकला को निचोड़ते समय भगवान सदाशिव के शरीर से अमृत बिंबदु पृथ्वी पर गिर कर सूख गए। पावन गुफा में जो भस्म है, वह इसी अमृत ङ्क्षबदु के कण है। सदाशिव भगवान देवताओं पर प्रेम न्यौछावर करते समय स्वयं द्रवीभूत हो गए और देवताओं से कहा-देवताओ! आपने मेरा बर्फ का लिंग शरीर इस गुफा में देखा है। इस कारण मेरी कृपा से आप लोगों को मृत्यु का भय नहीं रहेगा।

अब आप यहीं अमर होकर शिव रूप को प्राप्त हो जाएं। आज से मेरा यह अनादि लिंग शरीर तीनों लोकों में अमरेश के नाम से विख्यात होगा। भगवान सदाशिव देवताओं को ऐसा वर देकर उस दिन से लीन होकर गुफा में रहने लगे। भगवान सदाशिव महाराज ने देवताओं की मृत्यु का नाश किया, इसलिए तभी से उनका नाम अमरेश्वर प्रसिद्ध हुआ है।

मनुष्य श्री अमरनाथ जी की यात्रा करके शुद्धि को प्राप्त करता है तथा शिवलिंग के दर्शनों से भीतर-बाहर से शुद्ध होकर धर्म, अर्थ, काम वचन तथा मोक्ष को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। अमरनाथ धाम पहुंचना सौभाग्य की बात है। वहां भगवान शिव के दर्शन करने से सर्वसुख की प्राप्ति होती है। बाबा बर्फानी की गुफा में प्रवेश करके भगवान शिव की साक्षात उपस्थिति का एहसास होता है।

साभार : पंजाब केसरी 

Saturday, June 16, 2012

बारह हजारी के अंदर दुर्गा मां का मंदिर




नवरात्रों में दुर्गा मां के विभिन्न रूपों की आराधना श्रद्धापूर्वक की जाती है। हरियाणा में ही नहीं बल्कि समस्त भारत में स्थित शक्ति स्वरूपा के मंदिरों में भक्तों की भीड़ उमड़ आती है। कई मंदिरों में तो श्रद्धालुओं को लंबी कतारों में खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है। हिन्दू धर्म में त्रिदेवों [ब्रह्मा, विष्णु व महेश] को सबसे बड़े देव माना गया है और 33 करोड़ अन्य देवी-देवताओं का भी अस्तित्व बताया गया है। धर्मग्रंथों में वर्णित है कि इन सभी की शक्ति का स्त्रोत शक्ति स्वरूपा आदि शक्ति मां दुर्गा ही हैं जिनके तेज से सूर्य चमकता है और सृष्टि में जीवन का संचार हो रहा है। कितनी बार दुर्गा माता के अनेक रूपों ने संसार पर आने वाली विपदाओं को दूर किया है, इसीलिए उन्हें जगकल्याणी कहा जाता है।
शक्ति स्वरूपा मां दुर्गा के प्रति संपूर्ण भारत के निवासियों की अगाध आस्था है। भारतवर्ष के विभिन्न भागों में बने मां दुर्गा के भव्य मंदिरों में उमड़ने वाली भीड़ मां के प्रति श्रद्धालुओं की अगाध आस्था, अटूट विश्वास एवं अनन्य भक्ति भावना को प्रकट करती है।
हरियाणा में भी दुर्गा माता के अनेक प्राचीन धाम और दर्शनीय मंदिर स्थापित हैं जिनमें श्रद्धालु मन्नत मांगने काफी संख्या में नित्य जाते रहते हैं। हरि के प्रदेश हरियाणा के प्रसिद्ध शहर रेवाड़ी में बारह हजारी मोहल्ले में वर्ष 1962 में बने मां दुर्गा मंदिर की भव्यता देखते ही बनती है। इसमें स्थापित प्रतिमाएं जहां मुंहबोलती प्रतीत होती हैं, वहीं इसके भवन की शान अलग ही दिखती है। मां दुर्गा के मंदिर में जब श्रद्धालु जयकारे लगाते हुए चलते हैं तो मंदिर का वातावरण भक्ति से सराबोर हो जाता है। श्रद्धालुओं का मानना है कि मां दुर्गा के इस मंदिर में मां दुर्गा के त्रिशूल पर जो भी व्यक्ति सच्चे मन से धागा बांधता है उसे मां की कृपा अवश्य प्राप्त होती है। नि:संतान दंपति दुर्गा मां का आशीर्वाद पाने के लिए यहां अक्सर आते रहते हैं। श्रद्धालुओं का कहना है कि दुर्गा मां उनकी आराधना से शीघ्र प्रसन्न हो जाती हैं। मंदिर के पुजारी नरेंद्र शर्मा का कहना है कि मन्नत पूरी होने पर श्रद्धालु मां दुर्गा की आराधना करने के लिए यहां बार-बार आते हैं।
दुर्गा मां के इस भव्य मंदिर के पूर्व एवं उत्तर में दो द्वार हैं। इस मंदिर में मां दुर्गा की शेर पर बैठी एक विशाल मूर्ति स्थापित है जिसके पूर्व में शिवालय और भैरू की मूर्तियां स्थापित हैं। इस मंदिर में भैरू की अखंड जोत जलती रहती है। श्रद्धालु मां दुर्गा के साथ-साथ भैरू की पूजा-अर्चना भी करते हैं। श्रद्धालुओं का मानना है कि यहां मां दुर्गा की उपासना के बाद भैरू की उपासना न की जाए तो धोक पूर्ण नहीं होती है, इसलिए सभी श्रद्धालु भैरू की अखंड जोत के आगे धूप लगाकर नतमस्तक होते हैं और भैरू बाबा की कृपा प्राप्त करते हैं ताकि मां दुर्गा उनकी मुराद पूरी करें।
मां दुर्गा की विशाल मूर्ति के पश्चिम में पवनपुत्र हनुमान और राधा-कृष्ण की मनमोहक मूर्तियां स्थापित की गई हैं। दुर्गा मां के इस मंदिर में हर वर्ष 11, 12 व 13 मार्च को मां दुर्गा की विशेष रूप से आराधना की जाती है। पुजारी नरेंद्र शर्मा का कहना है कि इस दौरान मां दुर्गा का जन्मदिन हर्षोल्लास से मनाया जाता है। मां का भव्य दरबार सजाया जाता है और भक्ति गीतों से मां का गुणगान किया जाता है। महिला मंडल द्वारा हर मंगलवार को कीर्तन किया जाता है। हर महीने के आखिरी रविवार को मंदिर परिसर में रामायण के सुंदरकांड का पाठ किया जाता है। इस अवसर पर दूर-दूर से आकर श्रद्धालु मां दुर्गा के चरणों में अर्जी लगाते हैं। श्रद्धालुओं का मानना है कि मां दुर्गा इस मंदिर में साक्षात् विराजमान रहती हैं। लगभग 20 वर्ष से लगातार मां दुर्गा का श्रृंगार करने वाली उमरावती नामक महिला का कहना है कि मां दुर्गा की प्रतिमा को एकटक निहारने पर ऐसा एहसास होता है जैसे मां साक्षात् बैठकर अपने भक्तों के दुखड़ों को दूर कर रही हैं। इस दौरान मां अपने कई रूप बदलती हैं। उमरावती का कहना है कि यहां पर सच्चे मन से मांगी गई मुराद कभी निष्फल नहीं होती। यही कारण है कि यहां नवरात्रों के दौरान भीड़ का पारावार नहीं रहता है। श्रद्धालु मां दुर्गा की जय-जयकार करते हुए आगे बढ़ते हैं और मंदिर में धोक लगाते हैं। मां दुर्गा प्रचार मंडल के प्रधान कुलदीप राज हैं और उन्हीं की देखरेख में मंदिर का काम सुचारु रूप से चल रहा है।
मंदिर के प्रचार मंडल द्वारा हर वर्ष 14 मार्च को मां दुर्गा की झांकी निकाली जाती है। इस अवसर पर जागरण व विशाल भंडारे का आयोजन किया जाता है। भंडारे व जागरण में श्रद्धालु बढ़-चढ़कर शिरकत करते हैं। मां दुर्गा के प्रति अगाध श्रद्धा के कारण ही वर्तमान में मंदिर का भव्य भवन तैयार हुआ है।

साभार : दैनिक जागरण 

कनक दुर्गा मंदिर




पश्चिम बंगाल में खडग़पुर स्टेशन से लगभग 120 किमी.की दूरी पर पश्चिम मेदिनीपुर जिले की झाडग़्राम तहसील के जामबनी प्रखंड अंतर्गत चिल्कीगढ़ स्थित है प्राचीन कनक दुर्गा। इस मंदिर की स्थापना 1749 ई. में टिहार दीपगढ़ रिसायत के राजा गोपीनाथ सिंह मत्तगज ने तत्कालीन जामबनी परगना के चिल्कीगढ़ में अश्रि्वन माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी की थी।
रानी गोविंदमनी के स्वर्ण कंगन से मां की चतुर्भुज प्रतिमा बनाई गई थी। खास बात यह रही की यहां पर अश्व को देवी का वाहन बनाया गया था।
इसके पीछे यह कथा है कि- राजपरिवार की कन्या सुवर्णमनी का धालभूमगढ़ परगना के राजा सप्तम जगन्नाथ देवधवलदेव के साथ विवाह हुआ और उनके पुत्र कमलाकांत देव धवलदेव के वंशज आज भी मंदिर में पूजा का आयोजन करते आ रहे हैं, जबकि मंदिर में पूजा का दायित्व पुजारी रामचंद्र षाडंगी के वंशज निभा रहे हैं।- प्रतिवर्ष नवरात्र के दौरान महानवमी को दुर्गोत्सव को देखने के लिए प. बंगाल के अलावा झारखंड एवं ओडि़शा से भक्त मां के दर्शन को आते हैं। इस दिन मां के चरणों में भैंस की बलि चढ़ाई जाती है। आम दिनों वैसे तो प्रतिदिन लगभग 50-60 भक्त ही दर्शन को आते हैं, लेकिन महानवमी को हजारों की भीड़ उमड़ पड़ती है। ट्रेन अथवा सड़क मार्ग से बस एवं ट्रेकर द्वारा झाडग़्राम जाना होता है, जहां से कनक दुर्गा मंदिर की दूरी 18 किमी. है। झाडग़्राम से बस एवं ट्रेकर की सुविधा है। कनक दुर्गा मंदिर ट्रस्ट द्वारा संचालित यहां तीन गेस्ट हाउस हैं। इसके अलावा झाडग़्राम में स्थित होटलों में भी ठहरा जा सकता है, जिनका टैरिफ 150-500 रु. के बीच प्रतिदिन पड़ता है।

साभार : दैनिक जागरण 

चंद्रकोणा गुरुद्वारा




चंद्रकोणा गुरुद्वारा-खडगपुर से लगभग 97 किमी. दूर पश्चिमी मेदिनीपुर जिला स्थित है चंद्रकोणा गुरुद्वारा।
सिक्खो के प्रथम पातशाह श्रीगुरुनानक देव के कारण आराध्य स्थल है। अपनी दूसरी देशव्यापी धार्मिक यात्रा के क्रम में उत्तर प्रदेश के अयोध्या से होते हुए बाबा विश्वनाथ की पावन नगरी काशी-बनारस के रास्ते हिंदुओं के प्रमुख तीर्थस्थल गया से गुजरते हुए सिक्खो के पहले गुरु नानकदेव 1510 ईसवी में भगवान जगन्नाथ की नगरी पुरी जाने के क्रम में चंद्रकोणा पहुंचे और वहीं अपना डेरा जमाया। यही कारण है कि आज यह स्थल पश्चिम बंगाल के सिक्ख समाज के लिए पाकिस्तान के ननकाना साहिब से कम नहीं है।
कहा जाता है कि प्राकृतिक सौंदर्य के बीच गुरु नानक का मन तो रम गया परंतु वहां के लोग उनकी भाषा नहीं समझ पा रहे थे। इस बीच एक अंधा वहां पहुंचा और उनकी बोली सुनकर ग्रामीणों को बताया कि यह गुरु नानक देव हैं। गुरु के साथ उनके प्रिय शिष्य बाला और मरदाना भी थे। गुरु ने अलौकिक कृपा का चमत्कार दिखाते हुए अंधे को ज्योति प्रदान कर दी, तो बाबा की ख्याति चारों ओर फैलने लगी। ज्योति मिलने के बाद अंधे व्यक्ति ने बाबा का स्वरूप देख अपनी आंखें बंद कर ली और कहा कि जिन नेत्रों से उसने उस अलौलिक स्वरूप को देखा, उससे वह अब कुछ और नहीं देखना चाहता। नानक की महिमा सुन वहां पहुंचे तत्कालीन राजा चंद्रकेतु ने जब अलौकिक आभा वाले नानक देव को प्रणाम किया तो उन्होंने आशीर्वाद दिया परंतु इसके बाद भी राजा उनके चरणों से उठे नहीं तो बाबा ने मन की बात मन में ही समझते हुए पुत्र संतान का वरदान दिया था। राजा ने अपनी संतान का नाम श्रीचंद्र रखा।
नानक देव की महिमा से चंद्रकेतु ने इलाके की सारी भूमि उनको दान कर दी और आज भी वहां की जमीन गुरु ग्रंथ साहिब के नाम पर है। हालांकि वर्तमान समय में 10-12 एकड़ भूमि ही गुरुद्वारा के पास है। गुरुद्वारे के पास ही भगवान विष्णु व शिव के मंदिर स्थित हैं। चंद्रकोणा गुरुद्वारे में यूं तो प्रत्येक माह की पूर्णिमा तिथि को अरदास के लिए भक्तों का जमावड़ा लगता है किंतु दिसंबर की पूर्णिमा को यहां विशेष समारोह होता है। इसमें भाग लेने के लिए प. बंगाल के अलावा झारखंड, बिहार व ओडि़शा से भी लोग पहुंचते हैं। खडग़पुर से दूरी लगभग 97 किमी. उसके बाद ट्रेन अथवा सड़क मार्ग से जाया जा सकता है। चंद्रकोणा रोड से गुरुद्वारे तक की दूरी लगभग 20 किमी. है। गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की ओर से यहां आने वाले भक्तों के लिए गुरुद्वारा परिसर में ही रहने की व्यवस्था की जाती है।

साभार : दैनिक जागरण 


जैन तीर्थ स्थल पारसनाथ



जैनियों के प्रसिद्ध तीर्थ स्थल पारसनाथ [सम्मेत शिखर ]अपने धार्मिक महत्व और प्राकृतिक सौंदर्य के कारण देश-विदेश के श्रद्धालुओं के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। प्रति वर्ष हजारों की संख्या में विदेशी पर्यटक आते हैं। जैन धर्म के 23 वें तीर्थंकर पाश्‌र्र्वनाथ व अन्य 19 तीर्थंकरों के निर्वाण स्थल के कारण यह स्थल पूजनीय रहा है। पारसनाथ पहाड़ी पर स्थित कई मंदिर 2000 वर्ष पुराने हैं।
कैसे पहुचें पारसनाथ-
दिल्ली- हावड़ा ग्रैंड कॉर्ड स्थित पारसनाथ रेलवे स्टेशन से लगभग 15 किमी दूर पारसनाथ पहाड़ है। जिला मुख्यालय गिरिडीह से इसकी दूरी लगभग 40 किमी है। यहां आने-जाने के लिए सड़क मार्ग एक मात्र माध्यम है। मधुबन में सैलानियों के ठहरने के लिए कई धर्मशाला, होटल व सामुदायिक भवन हैं। सरकारी स्तर पर यहां पर्यटन विभाग की ओर से भी रेस्ट हाउस का निर्माण किया गया है।
पारसनाथ पर्वत की यात्रा साहस, रोमांच तथा धार्मिक भाव से परिपूर्ण है। समुद्र तल से लगभग 1365 मीटर ऊंचा यह पर्वत गिरिडीह और धनबाद जिले के लगभग 1687 एकड़ क्षेत्रफल में फैला है। जैन तीर्थंकरों के निर्वाण स्थल होने के कारण पर्वत की महत्ता और भी बढ़ जाती है। समुद्र तल से ऊंचाई पर होने के कारण इस चोटी पर नीचे की तुलना में छह से आठ डिग्री तापमान कम हो जाता है।

साभार : दैनिक जागरण 

Wednesday, June 13, 2012

श्री सोमनाथ मंदिर

*** श्री सोमनाथ मंदिर, गुजरात *** 

श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग गुजरात (सौराष्ट्र) के काठियावाड़ क्षेत्र के अन्तर्गत प्रभास में विराजमान हैं। इसी क्षेत्र में लीला पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने यदु वंश का संहार करने के बाद अपनी नर लीला समाप्त कर ली थी। ‘जरा’ नामक व्याध (शिकारी) ने अपने बाणों से उनके चरणों (पैर) को बींध डाला था। इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण स्वयं चन्द्रदेव ने किया था । इसका उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है । इसे अब तक १७ बार नष्ट किया गया है और हर बार इसका पुनर्निर्माण किया गया ।


आठवीं सदी में सिन्ध के अरबी गवर्नर जुनायद ने इसे नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी । प्रतिहार राजा नागभट्ट ने ८१५ ईस्वी में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण किया । इस मंदिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी । अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विवरण लिखा जिससे प्रभावित हो महमूद ग़ज़नवी ने सन १०२४ में सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया। मुहमद गजनवी ने कुछ ५,००० साथीयों के साथ ५०,००० लोग मंदिर के अंदर हाथ जोडकर पूजा अर्चना कर रहे थे, प्रायः सभी कत्ल कर दिये गये। मूर्ति भंजक होने के कारण तथा सोने-चाँदी को लूटने के लिए उसने मन्दिर में तोड़-फोड़ की थी। मन्दिर के हीरे-जवाहरातों को लूट कर वह अपने देश ग़ज़नी लेकर चला गया। उक्त सोमनाथ-मन्दिर का भग्नावशेष आज भी समुद्र के किनारे विद्यमान है। इतिहास के अनुसार बताया जाता है कि जब महमूद ग़ज़नवी उस शिवलिंग को नहीं तोड़ पाया, तब उसने उसके अगल-बगल में भीषण आग लगवा दी। सोमनाथ मन्दिर में नीलमणि के छप्पन खम्भे लगे हुए थे। उन खम्भों में हीरे-मोती तथा विविध प्रकार के रत्न जड़े हुए थे। उन बहुमूल्य रत्नों को लुटेरों ने लूट लिया और मन्दिर को भी नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।


महमूद के मन्दिर लूटने के बाद राजा भीमदेव ने पुनः उसकी प्रतिष्ठा की। सन् १०९३ में सिद्धराज जयसिंह ने भी मन्दिर की प्रतिष्ठा और उसके पवित्रीकरण में भरपूर सहयोग किया। ११६८ ई॰ में विजयेश्वर कुमारपाल ने जैनाचार्य हेमचन्द्र सरि के साथ सोमनाथ की यात्रा की थी। उन्होंने भी मन्दिर का बहुत कुछ सुधार करवाया था। सौराष्ट्र के राजा खंगार ने भी सोमनाथ-मन्दिर का सौन्दर्यीकरण कराया था। उसके बाद भी मुसलमानों ने बहुत दुराचार किया और मन्दिर को नष्ट-भ्रष्ट करते रहे। 


सन १२९७ ई॰ में जब दिल्ली सल्तनत के अलाऊद्दीन ख़िलजी ने गुजरात पर क़ब्ज़ा किया तो इसे पाँचवीं बार गिराया गया। उसके सेनापति नुसरत ख़ाँ ने जी-भर मन्दिर को लूटा। सन् १३९५ ई. में गुजरात का सुल्तान मुजफ्फरशाह भी मन्दिर का विध्वंस करने में जुट गया। अपने पितामह के पदचिह्नों पर चलते हुए अहमदशाह ने पुनः सन् १४१३ ई॰ में सोमनाथ-मन्दिर को तोड़ डाला। प्राचीन स्थापत्यकला जो उस मन्दिर में दृष्टिगत होती थी, उन सबको उसने तहस-नहस कर डाला। मुगल बादशाह औरंगजेब ने इसे पुनः १७०६ ई॰ में गिरा दिया।

मंदिर का बार-बार खंडन और जीर्णोद्धार होता रहा पर शिवलिंग यथावत रहा। लेकिन सन १०२६ में महमूद गजनी ने जो शिवलिंग खंडित किया, वह यही आदि शिवलिंग था। इसके बाद प्रतिष्ठित किए गए शिवलिंग को १३०० ई॰ में अलाउद्दीन की सेना ने खंडित किया। इसके बाद कई बार मंदिर और शिवलिंग खंडित किया गया। बताया जाता है आगरा के किले में रखे देवद्वार सोमनाथ मंदिर के हैं। महमूद गजनी सन १०२६ में लूटपाट के दौरान इन द्वारों को अपने साथ ले गया था।

सौराष्ट्र के पूर्व राजा दिग्विजय सिंह ने ८ मई १९५० को मंदिर की आधार शिला रखी तथा ११ मई १९५१ को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने मंदिर में ज्योतिर्लिग स्थापित किया। नवीन सोमनाथ मंदिर १९६२ में पूर्ण निर्मित हो गया। १९७० में जामनगर की राजमाता ने अपने स्वर्गीय पति की स्मृति में उनके नाम से दिग्विजय द्वार बनवाया। इस द्वार के पास राजमार्ग है और पूर्व गृहमन्त्री सरदार बल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा है। सोमनाथ मंदिर निर्माण में पटेल का बडा योगदान रहा। मंदिर के दक्षिण में समुद्र के किनारे एक स्तंभ है। उसके ऊपर एक तीर रखकर संकेत किया गया है कि सोमनाथ मंदिर और दक्षिण ध्रुव के बीच में पृथ्वी का कोई भूभाग नहीं है। यह तीर्थ पितृगणों के श्राद्ध, नारायण बलि आदि कर्मो के लिए भी प्रसिद्ध है। चैत्र, भाद्र, कार्तिक माह में यहां श्राद्ध करने का विशेष महत्व बताया गया है। इन तीन महीनों में यहां श्रद्धालुओं की बडी भीड़ लगती है। इसके अलावा यहां तीन नदियों हिरण, कपिला और सरस्वती का महासंगम होता है। इस त्रिवेणी स्नान का विशेष महत्व है।

भारतीय स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद राष्ट्र के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद और भारत के प्रथम गृहमन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने देश के स्वाभिमान को जाग्रत करते हुए पुनः सोमनाथ मन्दिर का भव्य निर्माण कराया और पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया। आज पुनः भारतीय-संस्कृति और सनातन-धर्म की ध्वजा के रूप में सोमेश्वर ज्योतिर्लिंग ‘सोमनाथ मन्दिर’ के रूप में शोभायमान है।

साभार : ये हैं हिन्दुस्तान मेरी जान : फेस बुक

Saturday, June 9, 2012

माँ बगलामुखी का प्राचीन मंदिर

तांत्रिकों की देवी बगलामुखी

''ह्मीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलम बुद्धिं विनाशय ह्मीं ॐ स्वाहा।'' 



प्राचीन तंत्र ग्रंथों में दस महाविद्याओं का उल्लेख मिलता है। उनमें से एक है बगलामुखी। माँ भगवती बगलामुखी का महत्व समस्त देवियों में सबसे विशिष्ट है। विश्व में इनके सिर्फ तीन ही महत्वपूर्ण प्राचीन मंदिर हैं, जिन्हें सिद्धपीठ कहा जाता है। उनमें से एक है नलखेड़ा में। तो आइए धर्मयात्रा में इस बार हम अपको ले चलते हैं माँ बगलामुखी के मंदिर।






भारत में माँ बगलामुखी के तीन ही प्रमुख ऐतिहासिक मंदिर माने गए हैं जो क्रमश: दतिया (मध्यप्रदेश), कांगड़ा (हिमाचल) तथा नलखेड़ा जिला शाजापुर (मध्यप्रदेश) में हैं। तीनों का अपना अलग-अलग महत्व है


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मध्यप्रदेश में तीन मुखों वाली त्रिशक्ति माता बगलामुखी का यह मंदिर शाजापुर तहसील नलखेड़ा में लखुंदर नदी के किनारे स्थित है। द्वापर युगीन यह मंदिर अत्यंत चमत्कारिक है। यहाँ देशभर से शैव और शाक्त मार्गी साधु-संत तांत्रिक अनुष्ठान के लिए आते रहते हैं। 

इस मंदिर में माता बगलामुखी के अतिरिक्त माता लक्ष्मी, कृष्ण, हनुमान, भैरव तथा सरस्वती भी विराजमान हैं। इस मंदिर की स्थापना महाभारत में विजय पाने के लिए भगवान कृष्ण के निर्देश पर महाराजा युधि‍ष्ठिर ने की थी। मान्यता यह भी है कि यहाँ की बगलामुखी प्रतिमा स्वयंभू है।



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यहाँ के पंडितजी कैलाश नारायण शर्मा ने बताया कि यह बहुत ही प्राचीन मंदिर है। यहाँ के पुजारी अपनी दसवीं पीढ़ी से पूजा-पाठ करते आए हैं। 1815 में इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया था। इस मंदिर में लोग अपनी मनोकामना पूरी करने या किसी भी क्षेत्र में विजय प्राप्त करने के लिए यज्ञ, हवन या पूजन-पाठ कराते हैं।



यहाँ के अन्य पंडित गोपालजी पंडा, मनोहरलाल पंडा आदि ने बताया कि यह मंदिर श्मशान क्षेत्र में स्थित है। बगलामुखी माता मूलत: तंत्र की देवी हैं, इसलिए यहाँ पर तांत्रिक अनुष्ठानों का महत्व अधिक है। यह मंदिर इसलिए महत्व रखता है, क्योंकि यहाँ की मूर्ति स्वयंभू और जाग्रत है तथा इस मंदिर की स्थापना स्वयं महाराज युधिष्ठिर ने की थी।

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इस मंदिर में बिल्वपत्र, चंपा, सफेद आँकड़ा, आँवला, नीम एवं पीपल के वृक्ष एक साथ स्थित हैं। इसके आसपास सुंदर और हरा-भरा बगीचा देखते ही बनता है। नवरात्रि में यहाँ पर भक्तों का हुजूम लगा रहता है। मंदिर श्मशान क्षेत्र में होने के कारण वर्षभर यहाँ पर कम ही लोग आते हैं।



धर्मयात्रा में इस बार की यात्रा आपको कैसी लगी, हमें जरूर बताएँ।



कैसे पहुँचें:-

वायु मार्ग: नलखेड़ा के बगलामुखी मंदिर स्थल के सबसे निकटतम इंदौर का एयरपोर्ट है।

रेल मार्ग: ट्रेन द्वारा इंदौर से 30 किमी पर स्थित देवास या लगभग 60 किमी मक्सी पहुँचकर भी शाजापुर जिले के गाँव नलखेड़ा पहुँच सकते हैं।

सड़क मार्ग: इंदौर से लगभग 165 किमी की दूरी पर स्थित नलखेड़ा पहुँचने के लिए देवास या उज्जैन के रास्ते से जाने के लिए बस और टैक्सी उपलब्ध हैं।

साभार : वेब दुनिया 

नेमावर के प्राचीन सिद्धनाथ महादेव



धर्मयात्रा की इस कड़ी में हम आपको ले चलते हैं पुण्य सलिला नर्मदा के किनारे बसे नगर नेमावर के प्राचीन सिद्धनाथ महादेव के मंदिर। महाभारतकाल में नाभिपुर के नाम से प्रसिद्ध यह नगर व्यापारिक केंद्र हुआ करता था मगर अब यह पर्यटन स्थल का रूप ले रहा है। राज्य शासन के रिकॉर्ड में इसका नाम 'नाभापट्टम' था। यहीं पर नर्मदा नदी का 'नाभि' स्थान है।

किंवदंती है कि सिद्धनाथ मंदिर के शिवलिंग की स्थापना चार सिद्ध ऋषि सनक, सनन्दन, सनातन और सनतकुमार ने सतयुग में की थी। इसी कारण इस मंदिर का नाम सिद्धनाथ है। इसके ऊपरी तल पर ओमकारेश्वर और निचले तल पर महाकालेश्वर स्थित हैं। श्रद्धालुओं का ऐसा भी मानना है कि जब सिद्धेश्वर महादेव शिवलिंग पर जल अर्पण किया जाता है तब ॐ की प्रतिध्‍वनि उत्पन्न होती है।



ऐसी मान्यता है कि इसके शिखर का निर्माण 3094 वर्ष ईसा पूर्व किया गया था। द्वापर युग में कौरवों द्वारा इस मंदिर को पूर्वमुखी बनाया गया था, जिसको पांडव पुत्र भीम ने अपने बाहुबल से पश्चिम मुखी कर दिया था।

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एक किंवदंती यह भी है कि सिद्धनाथ मंदिर के पास नर्मदा तट की रेती पर सुबह-सुबह पदचिन्ह नजर आते हैं, जहाँ पर कुष्‍ठ रोगी लोट लगाते हैं। ग्राम के बुजुर्गों का मानना है कि पहाड़ी के अंदर स्थित गुफाओं, कंदराओं में तपलीन साधु प्रात:काल यहाँ नर्मदा स्नान करने के लिए आते हैं। नेमावर के आस-पास प्राचीनकाल के अनेक विशालकाय पुरातात्विक अवशेष मौजूद हैं।

हिंदू और जैन पुराणों में इस स्थान का कई बार उल्लेख हुआ है। इसे सब पापों का नाश कर सिद्धिदाता ‍तीर्थस्थल माना गया है।

नर्मदा के तीर स्थित यह मंदिर हिंदू धर्म की आस्था का प्रमुख केंद्र है। 10वीं और 11वीं सदी के चंदेल और परमार राजाओं ने इस मंदिर का जिर्णोद्धार किया, जो अपने-आप में स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। मंदिर को देखने से ही मंदिर की प्राचीनता का पता चलता है। मंदिर के स्तंभों और दीवारों पर शिव, यमराज, भैरव, गणेश, इंद्राणी और चामुंडा की कई सुंदर मूर्तियाँ उत्कीर्ण है।

यहाँ शिवरात्रि, संक्रांति, ग्रहण, अमावस्या आदि पर्व पर श्रद्धालु स्नान-ध्यान करने आते हैं। साधु-महात्मा भी इस पवित्र नर्मदा मैया के दर्शन का लाभ लेते हैं।

कैसे पहुँचे :-

वायु मार्ग : यहाँ से सबसे नजदीकी हवाई अड्डा देवी अहिल्या एयरपोर्ट, इंदौर 130 किमी की दूरी पर स्थित है।

रेल मार्ग : इंदौर से मात्र 130 किमी दूर दक्षिण-पूर्व में हरदा रेलवे स्टेशन से 22 किमी तथा उत्तर दिशा में भोपाल से 170 किमी दूर पूर्व दिशा में स्थित है नेमावर।

सड़क मार्ग : नेमावर पहुँचने के लिए इंदौर से बस या टैक्सी द्वारा भी जाया जा सकता है।

साभार : वेब दुनिया 

जैन सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र का मंदिर




धर्मयात्रा की इस बार की कड़ी में हम आपको लेकर चलते हैं नेमावर के जैन सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र में जहाँ भव्य मंदिर खड़ा है नर्मदा के तट पर। इस क्षेत्र का महत्व इसलिए है, क्योंकि यह स्थान प्राचीन काल में जैन संन्यासियों की तपोभूमि हुआ करता था तथा यहाँ कई भव्य मंदिर हुआ करते थे।


रावण के सुत आदि कुमार, मुक्ति गए रेवातट सार।
कोटि पंच अरू लाख पचास, ते बंदों धरि परम हुलास।।

उक्त निर्वाण कांड के श्लोक के अनुसार रावण के पुत्र सहित साढ़े पाँच करोड़ मुनिराज नेमावर के रेवातट से मोक्ष पधारे हैं। रेवा नदी जो कि नर्मदा के नाम से भी जानी जाती है। जैन शास्त्र के अनुसार नेमावर नगरी पर प्रचीन काल में कालसंवर और उनकी रानी कनकमला राज्य करते थे। आगे जाकर यह निमावती और बाद में नेमावर हुआ।

नेमावर नदी के तल से विक्रम संवत 1880 ई.पू. की तीन विशाल जैन प्रतिमाएँ निकली है। पहली 1008 भगवान आदिनाथ की मूर्ति जिन्हें नेमावर जिनालय में, दूसरी 1008 भगवान मुनिसुव्रतनाथ की मूर्ति, जिन्हें खातेगाँव के जिनालय में और 1008 भगवान शांतिनाथ की पद्‍मासनस्त मूर्ति, जिन्हें हरदा में रखा गया है। इसी कारण इस सिद्धक्षेत्र का महत्व और बढ़ गया है।

जैन-तीर्थ संग्रह में मदनकीर्ति ने लिखा है कि 26 जिन तीर्थों का उल्लेख है उनमें रेवा (नर्मदा) के तीर्थ क्षेत्र का महत्व अधिक है उनका कथन है कि रेवा के जल में शांति जिनेश्वर हैं जिनकी पूजा जल देव करते हैं। इसी कारण इस सिद्ध क्षेत्र को महान तीर्थ माना जाता है।

उक्त सिद्ध क्षेत्र पर भव्य निर्माण कार्य प्रगति पर है। यहाँ पर निर्माणाधीन है पंचबालवति एवं त्रिकाल चौबीस जिनालय। लगभग डेढ़ अरब की लागत से उक्त तीर्थ स्थल के निर्माण कार्य की योजना है। लगभग 60 प्रतिशत निर्मित हो चुके यहाँ के मंदिरों की भव्यता देखते ही बनती है।

श्रीदिगंबर जैन रेवातट सिद्धोदय ट्रस्ट नेमावर, सिद्धक्षेत्र द्वारा उक्त निर्माण किया जा रहा है। ट्रस्ट के पास 15 एकड़ जमीन हो गई है जिसमें विश्व के अनूठे 'पंचबालयति त्रिकाल चौबीसी' जिनालय का निर्माण अहमदाबाद के शिल्पज्ञ सत्यप्रकाशजी एवं सी.बी. सोमपुरा के निर्देशन में हो हो रहा है। संपूर्ण मंदिर वं‍शी पहाड़पुर के लाल पत्थर से निर्मित हो रहा है।

पूर्ण मंदिर की लम्बाई 410 फिट, चौड़ाई 325 फिट एवं शिखर की ऊँचाई 121 फिट प्रस्तावित है। जिसमें पंचबालयति जिनालय 55 गुणित 55 लम्बा-चौड़ा है। सभा मंडप 64 गुणित 65 लम्बा-चौड़ा एवं 75 फिट ऊँचा बनना है।

खातेगाँव, नेमावर और हरदा के जैन श्रद्वालुओं के अनुरोध पर श्री 108 विद्यासागरजी महाराज के इस क्षेत्र में आगमन के बाद से ही इस तीर्थ क्षेत्र के विकास कार्य को प्रगति और दिशा मिली। श्रीजी के सानिध्य में ही उक्त क्षेत्र पर निर्माण कार्य का शिलान्यास किया गया।

इंदौर से मात्र 130 कि.मी. दूर दक्षिण-पूर्व में हरदा रेलवे स्टेशन से 22 कि.मी. तथा उत्तर दिशा में खातेगाँव से 15 कि.मी. दूर पूर्व दिक्षा में स्थित है यह मंदिर। यहाँ नर्मदा नदी के जल स्तर की चौड़ाई करीब 700 मीटर है।

कैसे पहुँचे :-
वायु मार्ग : यहाँ से सबसे नजदीकी हवाई अड्डा देवी अहिल्या एयरपोर्ट, इंदौर 130 किमी की दूरी पर स्थित है।
रेल मार्ग : इंदौर से मात्र 130 किमी दूर दक्षिण-पूर्व में हरदा रेलवे स्टेशन से 22 किमी तथा उत्तर दिशा में भोपाल से 170 किमी दूर पूर्व दिशा में स्थित है नेमावर।
सड़क मार्ग : नेमावर पहुँचने के लिए इंदौर से बस या टैक्सी द्वारा भी जाया जा सकता है।

साभार : वेब दुनिया ,अनिरुद्ध जोशी 'शतायु' 

लेटे हुए हनुमान का मंदिर

राजकोट के श्रीबड़े बालाजी हनुमान


धर्मयात्रा की इस बार की कड़ी में हम आपको ले चलते हैं, गुजरात के राजकोट शहर में स्थित रामभक्त हनुमान के मंदिर। राजकोट के कोठारिया रोड पर स्थित श्रीबड़े बालाजी के नाम से प्रसिद्ध इस मंदिर की खासियत यह है कि इसमें हनुमानजी की प्रतिमा लेटी हुई स्थिति में विद्यमान है। इस कारण यह मंदिर लेटे हुए हनुमान के नाम से भी पूरे सौराष्ट्र क्षेत्र में प्रसिद्ध है।

आज से तकरीबन चालीस साल पहले इस मंदिर की स्थापना की गई थी। मंदिर के पुजारी कमलदासजी महाराज और गुरु सर्वेश्वरदासजी महाराज कहते हैं कि चालीस साल पहले इसी जगह पर एक अनुष्ठान करते समय उनको हनुमानजी ने सर्पाकृति के रूप में दर्शन दिए, जिसे देखकर वे खड़े हो गए और उनका अनुष्ठान खंडित हो गया।  बाद में एक दिन स्वयं हनुमानजी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर मंदिर निर्माण के लिए प्रेरित किया। चूँकि प्रथम अनुष्ठान के दौरान उन्हें सर्पाकृति में हनुमानजी के दर्शन हुए थे, इसलिए उन्होंने कुछ भक्तजनों की आर्थिक मदद से यहाँ पर लेटे हुए हनुमान की प्रतिमा विराजमान की। पवित्र औषधी और मिश्रित धातु से बनी हुई इस प्रतिमा की उँचाई 21 फिट व चौड़ाई 11 फिट है।

शुरुआत में इस मंदिर के निर्माण में काफी दिक्कते आई, लेकिन धीरे-धीरे यह मंदिर पूरे गुजरात में प्रसिद्ध हो गया। आज यहाँ पर प्रतिदिन हजारों भक्तजन हनुमानजी के दर्शन के लिए आते हैं। रामनवमी और हनुमान जयंति पर तो यहाँ लोगों का यहाँ पर ताँता लगता है। इस दिन यहाँ पर एक विशाल भंडारा आयोजित होता है। 


भक्तजनों को मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करते ही नंदी महाराज और एक बड़ी शिवलिंग के दर्शन होते हैं जिन्हें कमलेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। मंदिर के अंदर बने झरोखे से भक्तजन नीचे लेटे हुए हनुमान जी के दर्शन करते हैं। लेटे हुए बालाजी हनुमान के पास उनकी रक्षा करते हुए बंदरों और सप्तऋषि की छोटी-छोटी मूर्तियाँ भी विराजमान है। मंदिर में हनुमानजी की एक छोटी-सी मूर्ति भी है, जो मंदिर की स्थापना के समय से विद्यमान है। 

मंदिर की दीवारों पर कई देवी-देवताओं के चित्रों को किसी मंजे हुए चित्रकार ने जीवंत रूप दिया है। जिसमें गुरु सर्वेश्वरदासजी महाराज का भी एक चित्र है। मंदिर के भीतर राम और कृ‍ष्ण का छोटा-सा मंदिर है।

इस मंदिर के नाम पर एक ट्रस्ट का निर्माण भी किया गया है जो गौसेवा, अन्नसेवा और गरीब विद्यार्थियों को निशुल्क रहने की सुविधा भी प्रदान करता है। कहते हैं कि यहाँ पर कभी भी दान माँगा नहीं जाता बल्कि स्वयं दाता दान देने के लिए आगे आते हैं। मान्यता है कि यहाँ पर आने वाले प्रत्येक भक्त की माँग को बड़े बालाजी पूरी करते हैं। 

कैसे पहुँचे : गुजरात के राजकोट रेलवे स्टेशन और बस स्टेशन से ऑटो या फिर बस के द्वारा यहाँ पहुँचा जा सकता है।

साभार : वेब दुनिया

उज्जैन का द्वारकाधीश गोपाल मंदिर



धर्मयात्रा की इस बार की कड़ी में हम आपको लेकर चलते हैं उज्जैन के प्रसिद्ध द्वारकाधीश गोपाल मंदिर। गोपाल मंदिर उज्जैन नगर का दूसरा सबसे बड़ा मंदिर है। शहर के मध्य व्यस्ततम क्षेत्र में स्थित इस मंदिर की भव्यता आस-पास बेतरतीब तरीके से बने मकान और दुकानों के कारण दब-सी गई है।

गोपाल मंदिर के पुजारी जगदिशचंद्र पुरोहित ने कहा कि इस मंदिर का निर्माण दौलत राव सिंधिया की धर्मपत्नी वायजा बाई ने संवत 1901 में कराया था जिसमें मूर्ति की स्थापना संवत 1909 में की गई। इस मान से ईस्वी सन 1844 में निर्माण 1852 में मूर्ति की स्थापना हुई। मंदिर के चाँदी के द्वार यहाँ का एक अन्य आकर्षण हैं।

मंदिर में दाखिल होते ही गहन शांति का अहससास होता है। इसके विशाल स्तंभ और सुंदर नक्काशी देखते ही बनती है। मंदिर के आसपास विशाल प्रांगण में सिंहस्त या अन्य पर्व के दौरान बाहर से आने वाले लोग विश्राम करते हैं। पर्वों के दौरान ट्रस्ट की तरफ से श्रद्धालुओं तथा तीर्थ यात्रियों के लिए कई तरह की सुविधाएँ प्रदान की जाती है।

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श्रीराम पाठक ने बताया कि कम से कम दो सौ वर्ष पूराना है यह मंदिर। मंदिर में भगवान द्वारकाधीश, शंकर, पार्वतीऔर गरुढ़ भगवान की मूर्तियाँ है ये मूर्तियाँ अचल है और एक कोने में वायजा बाई की भी ‍मूर्ति है। यहाँ जन्माष्टमी के अलावा हरिहर का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। हरिहर के समय भगवान महाकाल की सवारी रात बारह बजे आती है तब यहाँ हरिहर मिलन अर्थात विष्णु और शिव का मिलन होता है। जहाँ पर उस वक्त डेढ़ दो घंटे पूजन चलता है।



कैसे पहुँचे:

सड़क मार्ग: मध्यप्रदेश के इंदौर से लगभग 60 किलोमिटर दूर उज्जैन हिंदुओं का विश्व प्रसिद्ध तीर्थ स्थल हैं। इंदौर बस स्टेंड से बस द्वारा उज्जैन पहुँचा जा सकता है।

रेल मार्ग: तीर्थ स्थल उज्जैन का रेलवे स्टेशन देश के सभी प्रमुख रेलवे स्टेशनों से जुड़ा हुआ है। यहाँ से छोटी और बड़ी लाइन की रेलगाड़ियाँ मुंबई, दिल्ली, चेन्नई और कोलकाता के लिए जाती है।

हवाई मार्ग: उज्जैन का सबसे नि‍कटतम हवाई अड्डा इंदौर है।

साभार : वेबदुनिया/अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

तनोट की आवड़ माता





जैसलमेर से करीब 130 किमी दूर स्थि‍त माता तनोट राय (आवड़ माता) का मंदिर है। तनोट माता को देवी हिंगलाज माता का एक रूप माना जाता है। हिंगलाज माता शक्तिपीठ वर्तमान में पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के लासवेला जिले में स्थित है।

भाटी राजपूत नरेश तणुराव ने तनोट को अपनी राजधानी बनाया था। उन्होंने विक्रम संवत 828 में माता तनोट राय का मंदिर बनाकर मूर्ति को स्थापित किया था। भाटी राजवंशी और जैसलमेर के आसपास के इलाके के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी तनोट माता की अगाध श्रद्धा के साथ उपासना करते रहे। कालांतर में भाटी राजपूतों ने अपनी राजधानी तनोट से हटाकर जैसलमेर ले गए परंतु मंदिर तनोट में ही रहा।

तनोट माता का य‍ह मंदिर यहाँ के स्थानीय निवासियों का एक पूज्यनीय स्थान हमेशा से रहा परंतु 1965 को भारत-पाक युद्ध के दौरान जो चमत्कार देवी ने दिखाए उसके बाद तो भारतीय सैनिकों और सीमा सुरक्षा बल के जवानों की श्रद्धा का विशेष केन्द्र बन गई। 

सितम्बर 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध शुरू हुआ। तनोट पर आक्रमण से पहले श‍त्रु (पाक) पूर्व में किशनगढ़ से 74 किमी दूर बुइली तक पश्चिम में साधेवाला से शाहगढ़ और उत्तर में अछरी टीबा से 6 किमी दूर तक कब्जा कर चुका था। तनोट तीन दिशाओं से घिरा हुआ था। यदि श‍‍त्रु तनोट पर कब्जा कर लेता तो वह रामगढ़ से लेकर शाहगढ़ तक के इलाके पर अपना दावा कर सकता था। अत: तनोट पर अधिकार जमाना दोनों सेनाओं के लिए महत्वपूर्ण बन गया था।


17 से 19 नवंबर 1965 को श‍त्रु ने तीन अलग-अलग दिशाओं से तनोट पर भारी आक्रमण किया। दुश्मन के तोपखाने जबर्दस्त आग उगलते रहे। तनोट की रक्षा के लिए मेजर जय सिंह की कमांड में 13 ग्रेनेडियर की एक कंपनी और सीमा सुरक्षा बल की दो कंपनियाँ दुश्मन की पूरी ब्रिगेड का सामना कर रही थी। शत्रु ने जैसलमेर से तनोट जाने वाले मार्ग को घंटाली देवी के मंदिर के समीप एंटी पर्सनल और एंटी टैंक माइन्स लगाकर सप्लाई चैन को काट दिया था।

दुश्मन ने तनोट माता के मंदिर के आसपास के क्षेत्र में करीब 3 हजार गोले बरसाएँ पंरतु अधिकांश गोले अपना लक्ष्य चूक गए। अकेले मंदिर को निशाना बनाकर करीब 450 गोले दागे गए परंतु चमत्कारी रूप से एक भी गोला अपने निशाने पर नहीं लगा और मंदिर परिसर में गिरे गोलों में से एक भी नहीं फटा और मंदिर को खरोंच तक नहीं आई। 

सैनिकों ने यह मानकर कि माता अपने साथ है, कम संख्या में होने के बावजूद पूरे आत्मविश्वास के साथ दुश्मन के हमलों का करारा जवाब दिया और उसके सैकड़ों सैनिकों को मार गिराया। दुश्मन सेना भागने को मजबूर हो गई। कहते हैं सैनिकों को माता ने स्वप्न में आकर कहा था कि जब तक तुम मेरे मंदिर के परिसर में हो मैं तुम्हारी रक्षा करूँगी। 

सैनिकों की तनोट की इस शानदार विजय को देश के तमाम अखबारों ने अपनी हेडलाइन बनाया।


एक बार फिर 4 दिसम्बर 1971 की रात को पंजाब रेजीमेंट की एक कंपनी और सीसुब की एक कंपनी ने माँ के आशीर्वाद से लोंगेवाला में विश्व की महानतम लड़ाइयों में से एक में पाकिस्तान की पूरी टैंक रेजीमेंट को धूल चटा दी थी। लोंगेवाला को पाकिस्तान टैंकों का कब्रिस्तान बना दिया था।

1965 के युद्ध के बाद सीमा सुरक्षा बल ने यहाँ अपनी चौकी स्थापित कर इस मंदिर की पूजा-अर्चना व व्यवस्था का कार्यभार संभाला तथा वर्तमान में मंदिर का प्रबंधन और संचालन सीसुब की एक ट्रस्ट द्वारा किया जा रहा है। मंदिर में एक छोटा संग्रहालय भी है जहाँ पाकिस्तान सेना द्वारा मंदिर परिसर में गिराए गए वे बम रखे हैं जो नहीं फटे थे।
सीसुब पुराने मंदिर के स्थान पर अब एक भव्य मंदिर निर्माण करा रही है।

लोंगेवाला विजय के बाद माता तनोट राय के परिसर में एक विजय स्तंभ का निर्माण किया, जहाँ हर वर्ष 16 दिसम्बर को महान सैनिकों की याद में उत्सव मनाया जाता है। 


हर वर्ष आश्विन और चै‍त्र नवरात्र में यहाँ विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। अपनी दिनोंदिन बढ़ती प्रसिद्धि के कारण तनोट एक पर्यटन स्थल के रूप में भी प्रसिद्ध होता जा रहा है। 

इतिहास: मंदिर के वर्तमान पुजारी सीसुब में हेड काँस्टेबल कमलेश्वर मिश्रा ने मंदिर के इतिहास के बारे में बताया कि बहुत पहले मामडि़या नाम के एक चारण थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्त करने की लालसा में उन्होंने हिंगलाज शक्तिपीठ की सात बार पैदल यात्रा की। एक बार माता ने स्वप्न में आकर उनकी इच्छा पूछी तो चारण ने कहा कि आप मेरे यहाँ जन्म लें।

माता कि कृपा से चारण के यहाँ 7 पुत्रियों और एक पुत्र ने जन्म लिया। उन्हीं सात पुत्रियों में से एक आवड़ ने विक्रम संवत 808 में चारण के यहाँ जन्म लिया और अपने चमत्कार दिखाना शुरू किया। सातों पुत्रियाँ देवीय चमत्कारों से युक्त थी। उन्होंने हूणों के आक्रमण से माड़ प्रदेश की रक्षा की। 

काँस्टेबल कालिकांत सिन्हा जो तनोट चौकी पर पिछले चार साल से पदस्थ हैं कहते हैं कि माता बहुत शक्तिशाली है और मेरी हर मनोकामना पूर्ण करती है। हमारे सिर पर हमेशा माता की कृपा बनी रहती है। दुश्मन हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सकता है।
माड़ प्रदेश में आवड़ माता की कृपा से भाटी राजपूतों का सुदृढ़ राज्य स्थापित हो गया। राजा तणुराव भाटी ने इस स्थान को अपनी राजधानी बनाया और आवड़ माता को स्वर्ण सिंहासन भेंट किया। विक्रम संवत 828 ईस्वी में आवड़ माता ने अपने भौतिक शरीर के रहते हुए यहाँ अपनी स्थापना की। 

विक्रम संवत 999 में सातों बहनों ने तणुराव के पौत्र सिद्ध देवराज, भक्तों, ब्राह्मणों, चारणों, राजपूतों और माड़ प्रदेश के अन्य लोगों को बुलाकर कहा कि आप सभी लोग सुख शांति से आनंदपूर्वक अपना जीवन बिता रहे हैं अत: हमारे अवतार लेने का उद्देश्य पूर्ण हुआ। इतना कहकर सभी बहनों ने पश्चिम में हिंगलाज माता की ओर देखते हुए अदृश्य हो गईं। पहले माता की पूजा साकल दीपी ब्राह्मण किया करते थे। 1965 से माता की पूजा सीसुब द्वारा नियुक्त पुजारी करता है।


साभार : वेब दुनिया 

Wednesday, June 6, 2012

जागेश्वर धाम, अल्मोड़ा




उत्तराखंड के अल्मोड़ा से ३५ किलोमीटर दूर स्थित केंद्र जागेश्वर धाम के प्राचीन मंदिर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर इस क्षेत्र को सदियों से आध्यात्मिक जीवंतताप्रदान कर रहे हैं। यहां लगभग २५० मंदिर हैं जिनमें से एक ही स्थान पर छोटे-बडे २२४ मंदिर स्थित हैं।

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उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य के दौरान हिमालय की पहाडियों के कुमाऊं क्षेत्र में कत्यूरीराजा थे। जागेश्वर मंदिरों का निर्माण भी उसी काल में हुआ। इसी कारण मंदिरों में गुप्त साम्राज्य की झलक भी दिखलाई पडती है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार इन मंदिरों के निर्माण की अवधि को तीन कालों में बांटा गया है। कत्यरीकाल, उत्तर कत्यूरीकाल एवं चंद्र काल। बर्फानी आंचल पर बसे हुए कुमाऊं के इन साहसी राजाओं ने अपनी अनूठी कृतियों से देवदार के घने जंगल के मध्य बसे जागेश्वर में ही नहीं वरन् पूरे अल्मोडा जिले में चार सौ से अधिक मंदिरों का निर्माण किया जिसमें से जागेश्वर में ही लगभग २५० छोटे-बडे मंदिर हैं। मंदिरों का निर्माण लकडी तथा सीमेंट की जगह पत्थर की बडी-बडी shilaon से किया गया है। दरवाजों की चौखटें देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं। मंदिरों के निर्माण में तांबे की चादरों और देवदार की लकडी का भी प्रयोग किया गया है।


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स्थिति

जागेश्वर धाम के मंदिर।
जागेश्वर को पुराणों में हाटकेश्वरऔर भू-राजस्व लेखा में पट्टी पारूणके नाम से जाना जाता है। पतित पावन जटागंगाके तट पर समुद्रतल से लगभग पांच हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित पवित्र जागेश्वर की नैसर्गिक सुंदरता अतुलनीय है। कुदरत ने इस स्थल पर अपने अनमोल खजाने से खूबसूरती जी भर कर लुटाई है। लोक विश्वास और लिंग पुराण के अनुसार जागेश्वर संसार के पालनहारभगवान विष्णु द्वारा स्थापित बारह ज्योतिर्लिगोंमें से एक है।

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पौराणिक संदर्भ

पुराणों के अनुसार शिवजी तथा सप्तऋषियोंने यहां तपस्या की थी। कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई मन्नतें उसी रूप में स्वीकार हो जाती थीं जिसका भारी दुरुपयोग हो रहा था। आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य जागेश्वर आए और उन्होंने महामृत्युंजयमें स्थापित शिवलिंगको कीलित करके इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की। शंकराचार्य जी द्वारा कीलित किए जाने के बाद से अब यहां दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएंपूरी नहीं होती केवल यज्ञ एवं अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएंही पूरी हो सकती हैं।

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संदर्भ विकिपीडिया