Tuesday, May 29, 2012

SHAKTI PEETH - शक्ति पीठ


File:Mahalaxmi of Kolhapur.jpg

हिन्दू धर्म के अनुसार जहां सती देवी के शरीर के अंग गिरे, वहां वहां शक्ति पीठ बन गईं। ये अत्यंय पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं।

पुराणों के अनुसार सती के शव के विभिन्न अंगों से बावन शक्तिपीठो का निर्माण हुआ था। इसके पीछे यह अंतर्पंथा है कि दक्ष प्रजापति ने कनखल (हरिद्वार) में 'बृहस्पति सर्व' नामक यज्ञ रचाया। उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन जान-बूझकर अपने जमाता भगवान शंकर को नहीं बुलाया। शंकरजी की पत्नी और दक्ष की पुत्री सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी यज्ञ में भाग लेने गईं। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर को अपशब्द कहे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती ने यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी। भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। भगवान शंकर के आदेश पर उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। भगवान शंकर ने यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए इधर-उधर घूमने लगे। तदनंतर जहाँ सती के शव के विभिन्न अंग और आभूषण गिरे, वहाँ बावन शक्तिपीठो का निर्माण हुआ। अगले जन्म में सती ने हिमवान राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिए घोर तपस्या कर शिवजी को पुन: पति रूप में प्राप्त किया।पौराणिक संदर्भ

तंत्र चूडामणि अनुसार

पुराण ग्रंथों, तंत्र साहित्य एवं तंत्र चूड़ामणि में जिन बावन शक्तिपीठो का वर्णन मिलता है, वे निम्नांकित हैं। निम्नलिखित सूची 'तंत्र चूड़ामणि' में वर्णित इक्यावन शक्ति पीठो की है। बावनवाँ शक्तिपीठ अन्य ग्रंथों के आधार पर है। इन बावन शक्तिपीठो के अतिरिक्त अनेकानेक मंदिर देश-विदेश में विद्यमान हैं। हिमाचल-प्रदेश में नयना देवी का पीठ (पंचकूला) भी विख्यात है। गुफा में प्रतिमा स्थित है। कहा जाता है कि यह भी शक्तिपीठ है और सती का एक नयन यहाँ गिरा था। इसी प्रकार उत्तराखंड के पर्यटन स्थल मसूरी के पास सुरकंडा  देवी का मंदिर (धनौल्टी में) है। यह भी शक्तिपीठ है। कहा जाता है कि यहाँ पर सती का सिर धड़ से अलग होकर गिरा था। माता सती के अंग भूमि पर गिरने का कारण भगवान श्री विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्रसे सती माता के समस्तांग विछेदित करना था।

इक्यावन शक्तिपीठ

शक्तिपीठों की संख्या इक्यावन कही गई है। ये भारतीय उपमहाद्वीप में विस्तृत हैं। यहां पूरी शक्तिपीठों की सूची दी गई है।

"शक्ति" अर्थात देवी दुर्गा, जिन्हें दाक्षायनी या पार्वती रूप में भी पूजा जाता है। 
"भैरव" अर्थात शिव के अवतार, जो देवी के स्वांगी हैं। 
"अंग या आभूषण" अर्थात, सती के शरीर का कोई अंग या आभूषण, जो श्री विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र से काटे जाने पर पृथ्वी के विभिन्न स्थानों पर गिरा, आज वह स्थान पूज्य है, और शक्तिपीठ कहलाता है।

क्रम सं०स्थानअंग या आभूषणशक्तिभैरव
1हिंगुल या हिंगलाज, कराची, पाकिस्तान से लगभग 125 कि.मी. उत्तर-पूर्व मेंब्रह्मरंध्र (सिर का ऊपरी भाग)कोट्टरीभीमलोचन
2शर्कररे, कराची पाकिस्तान के सुक्कर स्टेशन के निकट, इसके अलावा नैनादेवी मंदिर, बिलासपुर, हि.प्र. भी बताया जाता है।आँखमहिष मर्दिनीक्रोधीश
3सुगंध, बांग्लादेश में शिकारपुर, बरिसल से 20 कि.मी. दूर सोंध नदी तीरेनासिकासुनंदात्रयंबक
4अमरनाथ, पहलगाँव, काश्मीरगलामहामायात्रिसंध्येश्वर
5ज्वाला जी, कांगड़ा, हिमाचल प्रदेशजीभसिधिदा (अंबिका)उन्मत्त भैरव
6जालंधर, पंजाब में छावनी स्टेशन निकट देवी तलाबबांया वक्षत्रिपुरमालिनीभीषण
7बैद्यनाथधाम, देवघर, झारखंडहृदयजय दुर्गाबैद्यनाथ
8गुजयेश्वरी मंदिर, नेपाल, निकट पशुपतिनाथ मंदिरदोनों घुटनेमहाशिराकपाली
9मानस, कैलाश पर्वत, मानसरोवर, तिब्ब्त के निकट एक पाषाण शिलादायां हाथदाक्षायनीअमर
10बिराज, उत्कल, उड़ीसानाभिविमलाजगन्नाथ
11गंडकी नदी के तट पर, पोखरा, नेपाल में मुक्तिनाथ मंदिरमस्तकगंडकी चंडीचक्रपाणि
12बाहुल, अजेय नदी तट, केतुग्राम, कटुआ, वर्धमान जिला, पश्चिम बंगाल से 8 कि.मी.बायां हाथदेवी बाहुलाभीरुक
13उज्जनि, गुस्कुर स्टेशन से वर्धमान जिला, पश्चिम बंगाल 16 कि.मी.दायीं कलाईमंगल चंद्रिकाकपिलांबर
14माताबाढ़ी पर्वत शिखर, निकट राधाकिशोरपुर गाँव, उदरपुर, त्रिपुरादायां पैरत्रिपुर सुंदरीत्रिपुरेश
15छत्राल, चंद्रनाथ पर्वत शिखर, निकट सीताकुण्ड स्टेशन, चिट्टागौंग जिला,बांग्लादेशदांयी भुजाभवानीचंद्रशेखर
16त्रिस्रोत, सालबाढ़ी गाँव, बोडा मंडल, जलपाइगुड़ी जिला, पश्चिम बंगालबायां पैरभ्रामरीअंबर
17कामगिरि, कामाख्या, नीलांचल पर्वत, गुवाहाटी, असमयोनिकामाख्याउमानंद
18जुगाड़्या, खीरग्राम, वर्धमान जिला, पश्चिम बंगालदायें पैर का बड़ा अंगूठाजुगाड्याक्षीर खंडक
19कालीपीठ, कालीघाट, कोलकातादायें पैर का अंगूठाकालिकानकुलीश
20प्रयाग, संगम, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेशहाथ की अंगुलीललिताभव
21जयंती, कालाजोर भोरभोग गांव, खासी पर्वत, जयंतिया परगना, सिल्हैट जिला,बांग्लादेशबायीं जंघाजयंतीक्रमादीश्वर
22किरीट, किरीटकोण ग्राम, लालबाग कोर्ट रोड स्टेशन, मुर्शीदाबाद जिला, पश्चिम बंगाल से 3 कि.मी. दूरमुकुटविमलासांवर्त
23मणिकर्णिका घाट, काशी, वाराणसी, उत्तर प्रदेशमणिकर्णिकाविशालाक्षी एवं मणिकर्णीकाल भैरव
24कन्याश्रम, भद्रकाली मंदिर, कुमारी मंदिर, तमिल नाडुपीठश्रवणीनिमिष
25कुरुक्षेत्र, हरियाणाएड़ीसावित्रीस्थनु
26मणिबंध, गायत्री पर्वत, निकट पुष्कर, अजमेर, राजस्थानदो पहुंचियांगायत्रीसर्वानंद
27श्री शैल, जैनपुर गाँव, 3 कि.मी. उत्तर-पूर्व सिल्हैट टाउन, बांग्लादेशगलामहालक्ष्मीशंभरानंद
28कांची, कोपई नदी तट पर, 4 कि.मी. उत्तर-पूर्व बोलापुर स्टेशन, बीरभुम जिला,पश्चिम बंगालअस्थिदेवगर्भरुरु
29कमलाधव, शोन नदी तट पर एक गुफा में, अमरकंटक, मध्य प्रदेशबायां नितंबकालीअसितांग
30शोन्देश, अमरकंटक, नर्मदा के उद्गम पर, मध्य प्रदेशदायां नितंबनर्मदाभद्रसेन
31रामगिरि, चित्रकूट, झांसी-माणिकपुर रेलवे लाइन पर, उत्तर प्रदेशदायां वक्षशिवानीचंदा
32वृंदावन, भूतेश्वर महादेव मंदिर, निकट मथुरा, उत्तर प्रदेशकेश गुच्छ/
चूड़ामणि
उमाभूतेश
33शुचि, शुचितीर्थम शिव मंदिर, 11 कि.मी. कन्याकुमारी-तिरुवनंतपुरम मार्ग, तमिल नाडुऊपरी दाड़नारायणीसंहार
34पंचसागर, अज्ञातनिचला दाड़वाराहीमहारुद्र
35करतोयतत, भवानीपुर गांव, 28 कि.मी. शेरपुर से, बागुरा स्टेशन, बांग्लादेशबायां पायलअर्पणवामन
36श्री पर्वत, लद्दाख, कश्मीर, अन्य मान्यता: श्रीशैलम, कुर्नूल जिला आंध्र प्रदेशदायां पायलश्री सुंदरीसुंदरानंद
37विभाष, तामलुक, पूर्व मेदिनीपुर जिला, पश्चिम बंगालबायीं एड़ीकपालिनी (भीमरूप)शर्वानंद
38प्रभास, 4 कि.मी. वेरावल स्टेशन, निकट सोमनाथ मंदिर, जूनागढ़ जिला, गुजरातआमाशयचंद्रभागावक्रतुंड
39भैरवपर्वत, भैरव पर्वत, क्षिप्रा नदी तट, उज्जयिनी, मध्य प्रदेशऊपरी ओष्ठअवंतिलंबकर्ण
40जनस्थान, गोदावरी नदी घाटी, नासिक, महाराष्ट्रठोड़ीभ्रामरीविकृताक्ष
41सर्वशैल/गोदावरीतीर, कोटिलिंगेश्वर मंदिर, गोदावरी नदी तीरे, राजमहेंद्री, आंध्र प्रदेशगालराकिनी/
विश्वेश्वरी
वत्सनाभ/
दंडपाणि
42बिरात, निकट भरतपुर, राजस्थानबायें पैर की अंगुलीअंबिकाअमृतेश्वर
43रत्नावली, रत्नाकर नदी तीरे, खानाकुल-कृष्णानगर, हुगली जिला पश्चिम बंगालदायां स्कंधकुमारीशिवा
44मिथिला, जनकपुर रेलवे स्टेशन के निकट, भारत-नेपाल सीमा परबायां स्कंधउमामहोदर
45नलहाटी, नलहाटि स्टेशन के निकट, बीरभूम जिला, पश्चिम बंगालपैर की हड्डीकलिका देवीयोगेश
46कर्नाट, अज्ञातदोनों कानजयदुर्गाअभिरु
47वक्रेश्वर, पापहर नदी तीरे, 7 कि.मी. दुबराजपुर स्टेशन, बीरभूम जिला, पश्चिम बंगालभ्रूमध्यमहिषमर्दिनीवक्रनाथ
48यशोर, ईश्वरीपुर, खुलना जिला, बांग्लादेशहाथ एवं पैरयशोरेश्वरीचंदा
49अट्टहास, 2 कि.मी. लाभपुर स्टेशन, बीरभूम जिला, पश्चिम बंगालओष्ठफुल्लराविश्वेश
50नंदीपुर, चारदीवारी में बरगद वृक्ष, सैंथिया रेलवे स्टेशन, बीरभूम जिला, पश्चिम बंगालगले का हारनंदिनीनंदिकेश्वर
51लंका, स्थान अज्ञात, (एक मतानुसार, मंदिर ट्रिंकोमाली में है, पर पुर्तगली बमबारी में ध्वस्त हो चुका है। एक स्तंभ शेष है। यह प्रसिद्ध त्रिकोणेश्वर मंदिर के निकट है)पायलइंद्रक्षीराक्षसेश्वर

 साभार  : मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
(शक्तिपीठ से अनुप्रेषित)

मान्यता है कि आपदा से बचाते हैं विश्वकर्मा



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पंच केदार, पंच बदरी की भूमि कल्प क्षेत्र उर्गम घाटी में 55 वर्ष बाद विश्वकर्मा जागर का आयोजन सम्पन्न हो गया। भगवान विष्णु के 108 नामों में एक नाम विश्वकर्मा भी है। देवताओं के शिल्पी के रूप में विश्वकर्मा को माना जाता है। विश्वकर्मा के मंदिर पैनखंडा में कोशा गाँव, पल्ला गाँव, थैंग, चाईं गाँव आदि अनेक स्थानों पर हैं। किन्तु उर्गम घाटी का विश्वकर्मा मंदिर विशिष्ट है। 300 साल पूर्व यहाँ 365 मंदिरों का उल्लेख मिलता है, किन्तु कल्प क्षेत्र में भूस्खलन के कारण अधिकांश मंदिर टूट गये। इन मंदिरों का निर्माण विश्वकर्मा द्वारा किया गया माना जाता है। उर्गम घाटी में ध्यान बदरी मंदिर नागर शैली में निर्मित है, जिसकी शिलायें 6 फीट लम्बी हैं। इसी के समीप विश्वनाथ मंदिर ऊँचाताप वाला भी कत्यूरी शासन काल में छठी से 11वीं सदी के बीच निर्मित है। इसी तरह श्री कल्पेश्वर धाम भी अति प्राचीन स्थान है। कल्प क्षेत्र उर्गम घाटी के देवग्राम में हर वर्ष चैत्रमास को नौ दिवसीय शिव पार्वती मेला होता है। केदार खंड के 52-56 अध्याय तक कल्पेश्वर का विस्तृत विवरण है। जिसमें शिव स्वयं पार्वती से कहते हैं कि कल्प क्षेत्र पार्वती से पुराना तथा मेरा प्रिय क्षेत्र है।

उर्गम घाटी में 12 छोटे-छोटे गाँव आते हैं, जिन्हें बारह ज्यूँव उर्गम कहा जाता है। इस घाटी में एक तल्ला बड़गिठड़ा गाँव है, जहाँ अनुसूचित जाति के 115 परिवार निवास करते हैं। इसी गाँव के बीच में विश्वकर्मा मंदिर स्थित है, जहाँ तीन दिवसीय विश्वकर्मा जागर का आयोजन 8 जनवरी से 10 जनवरी 2012 हुआ। लोक मान्यता है कि विश्वकर्मा की पूजा न करने पर बड़ी तबाही होती है। इस देवता को लोग जलवायु नियंत्रक मानते है। गाँव की खुशहाली के लिये देवता का जागरण किया जाता है। पुराणों की कथा है कि एक बार देवताओं और विश्वकर्मा के बीच कपिला गाय का मांस खाने पर तकरार हो गया और विश्वकर्मा ने पूरे ब्रह्मांड में तोड़-फोड़ शुरू की। तब देवताओं ने विश्वकर्मा से कहा कि हम तुम्हारी पूरी सेवा करेंगे और समय पर तुम्हारे कार्य करेंगे। इस विनय पर विश्वकर्मा का गुस्सा शान्त हुआ। तब से वास्तु शिल्प का कार्य शुरू होने से पहले विश्वकर्मा की पूजा की जाती है।
विश्वकर्मा मंदिर के अंदर मोर, हिरन, बाघ, चीता के अलावा कीचक, विष्णु महा पंचायत के चित्र उकेरे जाते हैं। विश्वकर्मा जागर आयोजन में सभी लोग भाग लेते हैं। विश्वकर्मा के मंदिर के विश्वकर्मा को एक ‘मवाड़’ अर्थात विशेष कपड़े पर चित्र के माध्यम से चित्रकारी कर मेले के स्थान पर रखा जाता है। 8 जनवरी 2012 से प्रातः अमृत बेला पर उर्गम घाटी के श्री घण्टाकर्ण मंदिर से विश्वकर्मा का भंडार विश्वकर्मा मंदिर ले जाया गया। उर्गम घण्टाकर्ण के कटार तथा छड़ी सहित अन्य मुख्य चिन्ह यहाँ लाये गये। 10 जनवरी को पूरे चार प्रहर की पूजा अर्चना हुई और दक्षिण दिशा से आये 9 झालों के साथ युद्ध हुआ। परम्परागत रूप से चैपला, झुमेला, दाकुड़ी लगाने के अलावा देवता का भंडार लगाया गया। 10 जनवरी को सूर्यास्त से पूर्व गरुड़ छाड़ (गरुड़ वाल) भी छोड़ा गया, ताकि विष्णु जी गरुड़ में बैठकर मेला स्थल पर आ सकें।
लेखक : लक्ष्मण सिंह नेगी , साभार : नैनीताल समाचार 



Tuesday, May 22, 2012

चम्पावत, भगवान विष्णु का कुर्मा अवतार स्थल

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चंपावत का महत्व महज इस वजह से नहीं है कि यह अतीत में कई राजवंशों की राजधानी रहा या प्राचीन शिल्पकला एवं हस्तकला के नमूने आज भी यहाँ मौजूद हैं। उसका महत्व इस रूप में आँका जाना चाहिये कि आज के भाग-दौड़ वाले जीवन में भी यहाँ शांति, प्राकृतिक सौंदर्य एवं धार्मिक व आध्यात्मिक स्थल यथावत बचे हुए हैं। मगर गगनचुंबी पर्वत श्रृंखलाओं और बाँज-बुरूँश, चीड़ व देवदार के सघन वनों के नयनाभिराम दृश्यों के बावजूद यहाँ पर्यटन विकसित नहीं हो पाया है।
चंद व कत्यूरी शासकों के यहाँ से शासन करने के दौरान निर्मित अनेक ऐतिहासिक स्मारक व धार्मिक स्थल आज भी मौजूद हैं। जिला मुख्यालय के चारों ओर बालेश्वर, मानेश्वर, सप्तेश्वर, डिप्टेश्वर, रिखेश्वर, क्रांतेश्वर, मल्लाडेश्वर, तारकेश्वर, घटोत्कच मंदिर, एकहथिया नौला, राजबुंगा का किला, चौपड़ खेलने का स्थल, नौ ढूँगा मकान आदि के भग्नावशेषों में उच्चकोटि की शिल्पकला एवं स्थापत्य है, जो आस्था के साथ शोध के लिये भी महत्वपूर्ण है। यदि शासन स्तर पर साहसिक पर्यटन को बढावा देने का प्रयास किया जाए तो चारों ओर के ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों में हैंड ग्लाइडिंग व माउंटेनियरिंग के लिए स्थल विकसित किए जा सकते हैं। प्रख्यात अंग्रेज शिकारी जिम कार्बेट ने यहाँ एक आदमखोर का शिकार भी इसी क्षेत्र में किया था। जनपद में सांस्कृतिक मेलों व उत्सवों आदि का आयोजन होता रहता है, जिनमें कुटीर उद्योग के रूप में स्थानीय हस्तकला की अनेक वस्तुएँ बिकने आती हैं। हालाँकि क्षेत्र में पर्यटकों की आवाजाही कम होने से शिल्पकला को समुचित बाजार नहीं मिल पा रहा है।
बहुचर्चित उत्तरमुखी गंडक नदी भी जिला मुख्यालय से होकर बहती है। कुमाऊँ शब्द का जन्म भी चंपावत में ही हुआ है। कुमाऊँ संस्कृत के कूर्म शब्द का अपभ्रंश है। ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु का कूर्म अवतार चंपावत क्षेत्र में ही हुआ था। इतिहासकार बद्रीदत्त पांडे ने विष्णु का कूर्मावतार स्थल चंपावत की कानदेव क्रांतेश्वर पर्वत चोटी पर बताया है। मानस खंड में 63वें अध्याय की शुरूआत में भी कूर्मांचल पर्वत का जिक्र आया है। कई लोगों का मानना है कि राम रावण संग्राम के दौरान कुंभकर्ण का सिर कटकर चंपावत क्षेत्र में जा गिरा था, जिसके चलते इस क्षेत्र को कुंभू और बाद में कूमू कहा गया। भगवान विष्णु का दूसरा अवतार कूर्म अथवा कछुवे का हुआ था। कहा जाता है कि यह अवतार चंपावती नदी के पूर्व में कूर्म पर्वत में तीन साल तक खड़ा रहा। उस कूर्म अवतार के चरणों का चिन्ह पत्थर में हो गया। तबसे इस पर्वत का नाम कूर्माचल हो गया। कूर्माचल का प्राकृत रूप बिगड़ते-बिगड़ते कुमू बना और यही शब्द बाद में कुमाऊँ हो गया। चंदों की राजधानी यहाँ से अल्मोड़ा जाने से पहले तक चंपावत और आसपास के इलाकों को ही कुमू कहा जाता था। बाद में चंदों के राज्य विस्तार के साथ कूर्माचल को वर्तमान कुमाऊँ कमिश्नरी के नाम से जाना जाने लगा। मगर इलाके की आम बोलचाल में कुमू और कुमइयाँ का अर्थ आज भी चंपावत और चंपावत के बाशिंदों से माना जाता है।

साभार : सतीश जोशी, नैनीताल समाचार 

Monday, May 21, 2012

ज्वाला देवी शक्ति पीठ


संसार में आस्तिक हैं तो नास्तिक भी हैं जो ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते हैं. हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में कालीधार पहाड़ी के बीच बसा ज्वाला देवी का मंदिर माता का ऐसा स्थान है जो नास्तिक को भी ईश्वर के अस्तित्व का एहसास कराता है. माता का यह शक्ति पीठ सदियों से परम सत्ता के अस्तित्व को साक्षात दर्शा रहा है. यह मंदिर अपने आप में अनूठा एवं अनुपम है. यहां माता का निराकार रूप एक अग्नि पुंज के रूप में मौजूद है जिसे ज्वाला देवी के नाम से भक्तगण पुकारते हैं.  

हिमाचल का शक्तपीठ | Himachal Shakti Peeth


हिमाचल प्रदेश प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण है. यहां का मनोरम दृश्य लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है. हिमाचल प्रदेश में कई देवी-देवताओं के मंदिर हैं. हिमाचल में ही माता के कई शक्ति पीठ हैं जिनमें नैना देवी, वज्रेश्वरी एवं ज्वाला देवी का नाम आता है. देवों की स्थली होने के कारण हिमाचल को देव घाटी के नाम से भी जाना जाता है. मान्यता है कि हिमाचल की घाटियों में आज भी देवी-देवता भ्रमण के लिए आते हैं. इस सुन्दर प्रदेश में स्थित माता ज्वाला का मंदिर समुद्र तल से लगभग 610 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है.  


ज्वाला माता की कथा | Jwala Mata Katha in Hindi

ज्वाला माता की उत्पत्ति की कथा है कि एक बार सती के पिता दक्ष प्रजापति ने यज्ञ का आयोजन किया जिसमें उन्होंने अपने दामाद भगवान शंकर को नहीं बुलाया. पिता का बुलावा नहीं आने के बावजूद देवी सती हठ करके राजा दक्ष के यज्ञ में शामिल होने पहुंच गयीं. वहां समस्त देवताओं के समक्ष दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्री सती एवं दामाद भोलेनाथ का अपमान किया. पिता के इस व्यवहार से कुपित होकर देवी सती ने यज्ञ कुण्ड में कूद कर प्राण त्याग दिये. भगवान शंकर को जब इस बात का ज्ञन हुआ तो उन्होंने अपने जटाओं से वीरभद्र को प्रकट किया और दक्ष प्रजापति के यज्ञ को नष्ट करने की आज्ञा दे दी. वीरभद्र ने दक्ष के यज्ञ स्थल को नष्ट कर दिया तथा दक्ष प्रजापति का सिर काट दिया.  



इसके पश्चात भगवान शंकर सती का शव अपने कंधे पर लेकर त्रिलोक में लिये भटक रहे थे तब शिव का मोह भंग करने के लिए देवताओं की प्रार्थना पर जगत पालक भगवान विष्णु ने अपने चक्र से देवी सती के अंग को 52 खंडों में विभक्त कर दिया. देवी सती के अंग जहां भी गिरे वह स्थान शक्ति पीठ कहलाया. शक्ति स्थल शक्ति की अराधना के केन्द्र बन गये. इन स्थानों पर माता का साक्षात वास माना जाता है. हिमाचल में कालीधार पहाड़ी पर माता की जिह्वा गिरी थी. यही स्थान ज्वाला देवी के नाम से विख्यात है.  

ज्वाला माता की ज्वाला | Jawala Mata's Flame




ज्वाला माता की ज्वाला की उत्पत्ति के विषय में बाबा गोरखनाथ की कथा इस क्षेत्र में काफी प्रचलित है. माना जाता है कि बाबा गोरखनाथ इसी स्थान पर माता की तपस्या किया करते थे. एक बार इन्हें भूख लगी तो इन्होंने माता से कहा कि वह गांव से अनाज मांग कर लाते हैं तब तक आप अग्नि जलाकर पानी गर्म कीजिए. गोरखनाथ के जाने के बाद माता अग्नि जलाकर पानी उबालने का प्रबंध करने लगीं. इसी समय कलियुग शुरू हो गया और बाबा गोरखनाथ लौटकर नहीं आए. उस समय से माता अग्नि जलाकर बाबा गोरखनाथ के आने की प्रतीक्षा कर रही हैं. ज्वाला माता के मंदिर में प्राकृतिक रूप से बिना तेल, बाती के मौसम कैसा भी हो ज्वाला देवी की ज्वला प्रज्जवलित रहती है. 

इस मंदिर में नौ देवियां ज्वाला रूप में सदा निवास करती हैं. मुख्य ज्वाला जो चांदी के जाला के बीच स्थित है उसे महाकाली कहते हैं. अन्य ज्वाला के रूप में अन्नपूर्णा, चण्डी, हिंगलाज, विध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका एवं अंजी देवी निवास करती हैं.  

ज्वाला माता के मंदिर में अकबर हुआ नतमस्तक | Jwala Mata Mandir : Akhbar Bowed his Head


मुगल सम्राट अकबर के समय माता का एक भक्त हुआ ध्यानु. ध्यानु अपने साथियों के साथ एक बार ज्वाला माता के मंदिर मे उनके दर्शनों के लिए निकला. अकबर के सैनिकों ने उन्हें बंदी बना लिया और उनसे पूछा कि तुम लोग कहां जा रहे हो. माता के भक्त ने कहा कि वह ज्वाला देवी के मंदिर में उनके दर्शनों के लिए जा रहा है. अकबर ने ध्यानु से कहा कि तुम्हारी माता क्या कर सकती हैं. इस पर ध्यानु ने कहा कि माता सर्वशक्तिमान हैं वह सब कुछ कर सकती हैं.  
अकबर ने ध्यानु जी के घोड़े का सिर कटवा दिया और बोला कि क्या तुम्हारी माता इस घोड़े का कटा सिर वापस घोड़े के सिर से जोड़ सकती हैं. इसके बाद अकबर ने माता की ज्योति को बुझाने के लिए उस पर पानी भी डलवाया. पवित्र ज्योति के पास अकबर ने एक नहर भी बनवाया ताकि उसके पानी से ज्योति बुझ जाये. ज्वाला को बुझाने का अकबर का सारा प्रयास विफल हो गया. घोड़े का सिर भी वापस घोड़े के धड़ से जुड़ गया. अकबर को तब ज्वाला देवी की शक्ति का आभास हुआ. दिल्ली लौटकर उसने सवा मन सोने का छत्र बनवाया और माता से माफी मांगने के लिए सपरिवार छत्र भेंट करने माँ के दरबार में आया.  

ज्वाला माता का मंदिर | Jwala Mata Temple


ज्वाला माता के मंदिर में चट्टानों के बीच से नौ दिव्य ज्वालाएं प्रज्जवलित होती रहती हैं. इस मंदिर में इन्हीं पवित्र ज्वालाओं की पूजा की होती है. मंदिर के पास ही 'गोरख डिब्बी' है जहां एक कुण्ड में पानी खौलता हुआ प्रतीत होता किन्तु छूने पर ठंढ़ा लगता है. ज्वाला देवी के मंदिर का निर्माण कांगड़ा के राजा भूमिचंद ने करवाया था. मान्यता है कि इस क्षेत्र में एक किसान के पास एक गाय थी. किसान जब गाय का दूध निकालने जाता तो गाय के थन में दूध नहीं होता था. किसान इसका कारण ��ूंढने के लिए एक दिन गाय के साथ-साथ गया. उसने देखा कि गाय एक स्थान पर रूक गयी वहां एक अद्भुत कन्या उस गाय का दूध पी रही है.
 
किसान लौट कर चला आया और राजा को आकर सारी बात बतायी.  राजा ने अपने सैनिकों को उस स्थान पर भेज कर सब हाल पता करने के लिए कहा. रात में राजा को सपने में काली माता ने दर्शन दिया और कहा कि वह उस स्थान पर ज्वाला रूप में निवास करती हैं वहां एक मंदिर बनवाओ. वर्तमान मंदिर का जिर्णोद्धार महाराजा रणजीत सिंह ने करवाया.  

ज्वाला माता के मंदिर के पास के अन्य मंदिर | Other Temples near Jwala Mata Mandir

ज्वाला माता के मंदिर के पास ही सेजा भवन, लाल शिवालय, सिद्ध नागार्जुन, अम्बिकेश्वर महादेव, राधा कृष्ण मंदिर हैं. यहां से वज्रेश्वरी देवी का मंदिर 30 किलोमीटर है. श्रद्धालु भक्त ज्वाला देवी से वज्रेश्वरी देवी की भी यात्रा कर सकते हैं.  

ज्वाला माता मंदिर की यात्रा | Jwala Mata Mandir Yatra


ज्वाला माता के दर्शन के लिए भक्त पूरे वर्ष में कभी भी यहां आ सकते हैं. यहां भक्तगण सड़क अथवा वायु मार्ग से पहुंच सकते हैं. कुल्लू एवं धर्मशाला में हवाई अड्डा है. यहां पहुंचकर सड़क मार्ग से माता के मंदिर तक आना होता है. रेल मार्ग से यात्रा करना चाहते हैं तो कालका यहां का नजदीकी रेलवे स्टेशन है. भारत की राजधानी दिल्ली से यह लगभग 350 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. प्रतिवर्ष यहां भारी संख्या में माता के भक्त दर्शन के लिए आते हैं. नवरात्रे के अवसर पर यहां बहुत बड़ा मेला लगता है. 

साभार : astribix.com, नीरज जाट जी 


माँ वज्रेश्वरी देवी मंदिर



The Shree Vajreshwari Devi Mandir is a Hindu temple dedicated to the goddess Vajreshvari, located in the town Nagarkot, in the Kangra district of Himachal Pradesh, India.

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Location

The temple of Vajreshvari is located in the town of NagarkotKangra districtHimachal PradeshIndia and is 11 km away from the nearest railway station of Kangra. The Kangra Fort is situated nearby. Its location on a mountain near Chamunda Devi temple, is 16 km from Nagarkot.

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Legends

The primary deity of the temple, Vajreshvari (vajreśvari), also spelled Vajreshvari, also known as Vajrábáiand Vajrayogini, is considered an incarnation of goddess Parvati or Aadi-Maya on earth. Her name literally means "the lady of the Vajra (thunderbolt)". There are two legends about the goddess' origins, both associated with the Vajra.
Thousands of years ago, a Rakshasa (demon) named Kalikala or Kalikut troubled the rishis (sages) and humans in the region of Vadvali and waged a war against the devas (gods). Distressed the gods and sages headed by Vashishta performed the Chandi yajna, a fire offering to the Goddess, to please Her. An aahuti(offering of ghee in yajna) was not granted to Indra (king of devas). Enraged, Indra hurled his Vajra - one of most powerful weapons in Hindu mythology- at the yajna. The terrified gods and sages prayed to the Goddess to save them. The Goddess appeared in all her glory at the site and not only swallowed the Vajraand humbled Indra but also killed the demons. Rama requested the Goddess that she should stay in the region of Nagarkot and be known as Vajreshvari. Thus, the Vajreshvari temple was established in this region.
Another legend says that Indra and other devas went to goddess Parvati and requested her to help slay the demon Kalikala. Goddess Parvati assured that she would come to their aid at the right time and ordered them to fight with the demon. In the battle, Kalikala swallowed or broke all weapons thrown at him. Finally, Indra threw the Vajra at the demon, which Kalikala broke into pieces and from the Vajra, emerged the Goddess, who destroyed the demon. The devas extolled her as Vajreshwari and built her temple.
Another legend says that after Goddess Sati sacrificed herself in the honor of Lord Shiva in her Fathers Yagya. Shiva took her body on his shoulder and started Tandav. In order to stop him from destroying the world Lord Vishnu divided the body of Sati into 52 parts with his Chakra. The left breast of Sati fell at this spot, thus making it a Shakti Peeth.



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History

The original temple was built by the Pandavas at the time of Mahabharatha. Legend says that one day Pandavas saw Goddess Durga in their dream in which she told them that she is situated in the Nagarkot village and if they want them self to be secure they should make a temple for her in that area otherwise they will be destroyed. That same night they made a magnificent temple for her in the Nagarkot village. This temple was looted a number of time by the Muslim invaders. Md Gaznavi looted this temple at least 5 times, in the past it used to contain tonnes of gold and many ghantas made of pure silver. In 1905 the temple was destroyed by a powerful earthquake and was subsequently rebuilt by the government.

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Temple structure

The main gate entrance has a Nagarkhana or drum house and is built similar to the Bassein fort entrance. The temple is also surrounded by a stone wall like a fort.
Inside the main area Goddess Vajreshvari is present in the form of Pindi. The temple also have a small temple of Bhairav. In front of the main temple an idol of Dhayanu Bhagat is also present. He had offered his head to the Goddess at the time of Akbar. The present structure has three tombs in it, which is unique in itself.

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Temple festivals

The temple celebrates Navaratri once from the first day of fortnight of waxing moon of the Hindu month ofChaitra (March) to the ninth day of Ram Navami and then from the first day of the bright half of the Hindu month of Ashvin (October) to the 10th day Vijayadashami.
A huge fair in honour of Goddess Vajreshwari is held on Amavasya (new moon day) in the month of Chaitra. The fair commences on the 14th day of fortnight of waning moon of the month with ceremonial worship of the Goddess. On Amavasya at night, lamps are worshipped. On the next day, the first day of Hindu monthVaisakha, the ceremonial procession with a Palkhi (palanquin) carrying an image of the goddess, is taken out.
Other festivals the temple celebrates are Shiva worship in Hindu month of ShravanaKojagiri Poornima - full moon day of Hindu month AshvinDiwali (festival of lights); Holi (festival of colours); Datta Jayanti (birthday of the deity Datta); Hanuman Jayanti (birthday of monkey god Hanuman) and Godhadebuwa Jayanti(birthday of the saint Godhadebuwa).
Makar sakrantri, which comes on second week of January, is also celebrated in the temple. Legend says that after killing Mahishasura in the battle, devi had got some injuries. to heel those injuries Goddess had applied Makhan (butter) on her body, in Nagarkot. Thus to mark this day the Pindi of Goddess is covered with Makhan and the festival is celebrated for a week in the temple.

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Administration

The temple is taken care of by the government of India.

साभार : विकिपीडिया